Thursday, February 25, 2016

एक स्‍त्रैण कविता

कविता से अपनी
कविता से तमाम दुनिया की
मैं हटा देना चाहता हूँ मर्द कविताएं
इनसे नोच लेना चाहता हूँ
(देखा मर्द बिना नोचे कविताएं तक नहीं जन्‍मते)
सारी मर्दानगी
इनमें घोलना चाहता हूँ
खुद को
ऑंसुओं को अपने
हया औ शर्म अपनी
सपने अनदेखे वर्जित
मुझमें जो कुछ जितना कुछ स्‍त्री है
प्‍यार में अपने, पुलक सा
मिला देना चाहता हूँ
कविता-मर्द में ।।
हरेक कविता को मैं बना देना चाहता
स्‍त्रैण जितना हो सके
कैसे कहूँ कि कितना जरूरी हो गया है ये
जब से कविताएं औरतों की
बधिया हुई हैं।

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