Sunday, January 31, 2016

अन्‍ना कैरेनिना को मैंने नहीं मारा

हत्‍यारों की सूची
जो टँकी है चौराहे के नोटिस बोर्ड पर
उसमें मेरा भी है नाम।
हैरान हूँ मैं क्‍योंकि मैं जानता हूँ बिला शक
कि मैंने नहीं मारा था गाँधी को।
उस उदास रामदास को भी
हाथ तौलकर चाकू मैंने नहीं घोंपा था।
यूँ हत्‍याएं अब तमगा हो गई हैं
जो बायो डाटा में काबिले जिक्र हों
और जिनसे मिलें तरक्‍की
इसलिए
मुझे हत्‍यारा होने के अंजाम की फिक्र उतनी नहीं
जितनी मुझे चिंता है
हलाक को जानने की।
कितनी ही हत्‍याओं का गवाह मै
चीह्नता रहा
हर बार खुद को ही
अगले शिकार के रूप में
अब सुना मैं हत्‍यारा हो गया
नोटिस का मजमून कहता है मैंने मारा है
वक्त की सात नदियाँ
जमीं के सात पहाड़ पार
नीले सर्द होंठों वाली
अन्‍ना कैरेनिना को
सुनो
अन्‍ना कैरेनिना
मैं लेविन न ब्रांकी
आत्महत्या न भी मानो उसे तब भी
मेरे पास न तर्क न पैरवीकार
कहने का कुछ लाभ नहीं
पर फिर भी
सुनो मेरे प्‍यार
तुम्‍हारे होंठों की कसम
वो मैं नहीं था।

Saturday, January 30, 2016

कीला काटी

कविता में नहीं इसे तो गद्य में ही लिखना होगा, कविता में लिखता हूँ जब खुद को खोने के लिए लिखना होता है, खुद को खोने के लिए। कभी कभी मुझे कविता लिखना बचपन का किल्‍ला काटी का खेल सा लगता है, अबूझ खेल था और मैं उसका अबूझ खिलाड़ी था। इसमें होता ये है था कि दो दल अलग अलग जगहों पर एक तय वक्‍त तक लकड़ी के कोयले या खडि़या से छोटी छोटी लाइनें डालते थे खूब छिपाकर, फिर वकत पूरा हो जाने पर दूसरा दल उन्‍हें खोजकर काट देता था, जो वो खोज नहीं पाते थे, उन्‍हें ही गिनकर जीत हार का फैसला किया जाता था। मैं अजीब खिलाड़ी इसलिए था कि मैं खूब छिपाकर ये कीलें बनाता लेकिन जब दूसरा दल नहीं भी खोज पाया होता था तब भी मैं बताता ही नहीं था कि उस कोने में, वहॉं उस ईंट के नीचे भी अपने खजाने को छिपा रखा है मैंने... जीत के लिए नहीं था मेरा खजाना। कविताएं भी ऐसे ही हैं खूब छिपाकर लिखता हूँ..लिखते हुए किसी को दिख जाए तो लगता है चोरी पकडी गई... लिखने के बाद भी लगता बस लिखना भर हो गया न। दरअसल लिखने से खुद को उसमें छिपा देने जैसा लगता है कभी आड़े वकत जब मैं खुद को मिल नहीं रहा होउंगा तो इस पाले में आकर अकेले अपनी खडि़या की खींची कीलों सी रेखाओं में अपने कीला काटी में खुद को पाने की कोशिश करुंगा।

Tuesday, January 19, 2016

मैं वहाँ नहीं था

मैं वहाँ नहीं था
जब ढो रहा था वो अपना सलीब
मैं वहां नहीं था
आखिर क्यों नहीं था मैं वहां
उसके हत्यारे पूछते हैं।
जब सबसे कमज़ोर थी तुम
खोजती थीं मुझे
तब मैं वहां नहीं था
आखिर क्यों नहीं था मैं वहां
कातर तुम्हारी चुप्पियाँ पूछती हैं
दर्द के ग्लेशियर पिघलकर
जब बन प्यार की नदी
आ टकराये थे तराई के पत्थरों से
तब मैं वहां नहीं था
पूछते हैं बेबस झूले वाले पुल
मैं था क्यों नहीं वहां
मैं वहां नहीं था
क्योंकि मैं था यहीं
पथरायी प्रतीक्षा में
प्रतीक्षा में थिर हो
जम जाना
शायद कुछ न हो जाना है।
वहां न होना
कुछ न होना ही है

Sunday, January 17, 2016

रचने ही होते हैं पुतले

सिर्फ तमाशा नहीं है
पुतलों को फूंकना
धूं धूं फुंकते देखना
हर वक़्त को
हर देश को
हर मन को चाहिए होते हैं पुतले
कि दुश्मन के बिना
बहुत मुश्किल है
अनचाहे सवालों को दफन करना
नेस्‍तनाबूद कर पाना
भीतर उगते
प्रवंचनाओं के किलों को।
नफरत संग्रहणीय हो जाए तो
प्‍यार के पुतलों का दहन
रोजमर्रा जरूरत हो जाता है।

Wednesday, January 13, 2016

आजादी मेरा ब्रांड- पढने के लिए हिम्‍मत जुटान

किसी भी स्‍त्री की कहानी पढ़ते हुए मुझे डर लगता है खासकर अगर कहानी में कोई सच्‍चाई हो, पुरुषों को स्त्रियों की कहानी से डरना ही चाहिए क्‍योंकि स्‍त्री की हर कहानी एक आरोपपत्र होती है, मुझे तो लगती है अपने पर। Anuradha Saroj की यायावारी आवारगी भी मैं तीन बार में कोशिश करके खरीद सका पहले दो बार राजकमल जाकर वापस आ गया, हिम्‍मत नहीं हुई...तीसरी बार बिटिया (तेरह साल) को साथ ले गया उसीसे खरीदवा ली... अनुराधा के बारे में जितना पता था वो उसे बताया और उसने -वाउ.. से अनुराधा का स्‍वागत किया..मैं भी ऐसा ही ट्रेवल करुंगी का घोष भी। दावे से नहीं कह सकता पर शायद अच्‍छा लगा।
अभी किताब को पढ़ना शुरू करना बाकी था और मुझे पता था ये मुश्किल होने वाला था...औरत की आज़ादी से हम सब डरते हैं। कहना मुश्किल है कि ये मेरा ही भय है कि किसी और के भी साथ ऐसा कुछ होता है लेकिन मुझे ज्ञात से भी भय होता है अज्ञात से दुनिया डरती ही है। मुझे पता था कि अनुराधा ने किताब में यात्रा को आ़जादी का रास्‍ता बनाया होगा और आज़ादी के साथ ही वो सब भी होगा ही सही मायने में औरत को गुलाम बनाता है... ये है तो आरोप जमाने पर ही पर इसी लिए मुझ पर भी है, होना ही चाहिए। मैं इसीलिए किताब पढ़ने से डर सा रहा था,  फिर से अपनी मिष्‍टी का ही सहारा लिया...मिष्‍टी तुमने किताब पढ़नी शुरू की ? आजा़दी मेरा ब्रांड, फेवरेट खोलकर दी... इतनी हिंदी की उसे आदत नहीं पर कोशिश की..लेकिन पेट में तितलियॉं उड़ने पर आकर अटक गई... अब हिम्‍मत का मौका मेरा था...लाओ मैं रीड करता हूँ...फिर मैं पढ़ने लगा... लड़को के साथ सोने के प्रकरण को कब डरपोक बाप 'लड़कों के साथ होना' पढ़ गया मुझे पता ही नहीं चला.. मिष्‍टी अब दूसरे कमरे में चली गई है और मुझे मालूम है कि आजादी का हर लफ्ज मुझ पर एक सवाल है पर मिष्‍टी के लिए जो दुनिया चाहिए उसके लिए जरूरी है कि सवालों से मुँह न मोड़ा जाए... इसलिए किताब पूरी तो पढ़ी ही जाएगी विद पेट में तितलियॉं...
अनुराधा मिष्‍टी की रमोना हो

Tuesday, January 12, 2016

लिखना दरअसल मिटाना है होने को

जब जब लिखता हूँ कुछ
लगता है मिटा रहा हूँ सबकुछ
वह सब मिटता है 
जो मुझे लिखना था दरअसल
मुझे लिखना था मैं, और लिखना था तुम्‍हें
किंतु कविता के ढॉंचें में अँटा नहीं मेरा अहम
कहानी में तुम अकेले आ नहीं पाईं
और पात्रों ने तुम्‍हें तुम रहने न दिया
निबंध औ उपन्‍यास भी थके से लगे पराजित
विधाएं दगा करती हैं
जब तुम पर या कि
खुद पर चाहता हूँ कुछ लिखना।

लिखने की कोशिश
शब्‍दों के दर्प यज्ञ में आहूति है बस
वरना
कविता भी भला सच कहती हैं कभी

Monday, January 04, 2016

मैं तीसरा पराजित पक्ष हूँ

तुम्‍हारा सच
तुम्‍हारा झूठ
तुम्‍हारी तलवार
तुम्‍हारी ढाल
तुम्‍हारी ध्‍वजा
तुम्‍हारी यलगार
दुर्ग तुम्‍हारे
युद्धनाद तुम्‍हारे
विजय तुम्‍हारी
विजित तुम्‍हारे
संदेश तुम्‍हारे
तुम्‍हारे हरकारे

तुम्‍हारे इस एकाकी समर में,
मेरा प्रेम
तीसरा पराजित पक्ष भर है।
वो न बिगुल है न हथियार
वो युद्ध-संधियों की इबारत में भी
नहीं है दर्ज।

इस पक्ष का
यह संख्‍यावाचक विशेषण भी
मेरा चुनाव नहीं है
पराजय मेरा कुल हासिल है
इस विक्षत बेगाने युद्ध में।

तुम्‍हारी देह पर
वैजयंती से सजे युद्धघाव तक
मुझे ही आहत करते हैं
रहे तीसरे पक्ष के अनदेखे घाव 
किंतु वे दर्ज  होते नहीं
यद्धों के इतिहास में।

Saturday, January 02, 2016

कॉंच के बुतों के ऑंसू

बहुत मुश्किल है
साफ रहना लेकिन बुत न होना
कॉंच के बुतों के इस शहर में
पारदर्शी नहीं
नफरत से भरे होते हैं ये बुत
सामने हों भले कि ये देखते हैं आपके आरपार
गोकि
आपका होना ही है अस्वीकार
रोको लेकिन
नहीं बहने चाहिए
कॉंच के बुतों के खारे ऑंसू
नमक सच को धुंधला करता है।

Friday, January 01, 2016

'क्‍लेमिंग द स्‍पेस': किंतु क्‍लेमोपरांत स्‍पेस वही रहता कहॉं है ?

'क्‍लेमिंग द स्‍पेस' उदार लोकतंत्र का एक बेहद चलता मुहावरा है हम इसके अक्‍सर पक्षधर रहे हैं। मसलन जब दिल्‍ली बलात्कार कांड के बाद स्त्रियों ने क्‍लेमिंग द अरबन स्‍पेस की मुहिम चलाई या फिर दलित व अन्‍य वंचित वर्गो द्वारा उन स्‍पेसों को क्‍लेम करने की बात होती है जो परंपरागत रूप से वर्चस्‍व प्राप्‍त वर्ग के पास रहे हैं तो यह क्‍लेमिंग द स्‍पेस इतनी जायज लगती है कि हम जीभर इसका समर्थन करते हैं भाषा में भी और सड़कों पर भी। इसी तरह स्‍पेस क्‍लेम या रीक्‍लेम करने की कवायद में जो अपने हक के लिए संघर्ष करने छटपटाहट छिपी है वह काम्‍य ही जान पड़ती है।
लेकिन स्‍पेस क्‍लेम करने की हर कवायद सदैव ऐसी ही छटपटाहट से भरी जरूरी नहीं। कभी कभी याद आता है कि कैसे स्‍कूल में जब सीट साझा करने वाले पक्‍के दोस्‍त से कुट्टी होती थी तो डेस्‍क पर अपना हिस्‍सा क्‍लेम करना मुझे एक सबसे मुश्किल कामों में से लगता था, मैं दरअसल सीट छोड़कर कहीं पीछे अगर मिल जाए तो अकेला बैठना ज्‍यादा पसंद करता था। माने जो हमारे स्‍पेस पर जम कर बैठा आतताई है उससे अपना स्‍पेस लड़कर लेने में जो उदात्‍तता है वो इस क्‍लेमिंग द स्‍पेस में हर जगह मौजूद हो जरूरी नहीं।
फिर स्‍पेस उतना भौतिक बचा भी नहीं तो नहीं। मसलन वर्चुअल स्‍पेस को लो, फेसबुक पर हमारी वॉल कितना हमारा स्‍पेस है कितना वह उन मित्रों उनके लाइक कमेंट उनकी वॉल आदि से मिलकर बनी एक समन्वित शै है यह वँटवारा कितना तो मुश्किल है। हमारा ब्‍लॉग हमारी पोस्‍टों से बनता है कि ढेर कमेंट्स और पुरानी पोस्‍टों के इतिहास से यह तय होना कठिन है ऐसे में कोई अपने वर्चुअल स्‍पेस को क्‍लेम करने में कितने दूसरे स्‍पेसों तक अपनी चेष्‍टा को पहुँचाता है इसका निर्धारण आसान नहीं है।
यह सब कहने का मतलब मात्र इतना है कि स्‍पेस पर दावा ठोंकने से पहले हमें यह जरूर समझना चाहिए कि कोई भी स्‍पेस सिर्फ हमारा नहीं होता हम उसे कितना भी निजी स्‍पेस क्‍यों न मानते हों। स्‍पेस की अपनी भी एक स्‍वायत्‍तता होती है तथा एक संतुलन भी। क्‍लेम्‍ड स्‍पेस इस दावे से पहले जो होता है वह इस दावे के बाद ठीक वही नहीं रह जाता। मसलन दोस्‍त और मेरी साझा डेस्‍क का संतुलन जो पहले था वह जब पूरी तरह दोस्‍त के 'कब्‍जे' में आ जाता है तो वही नहीं रह जाता जैसा हमारे संयुक्‍त दावे में हुआ करता था। अब अगर डेस्‍क पर दावे के वक्‍त यह ध्‍यान ही न रखा जाए कि जिस पर दावा किया जा रहा है वह मिल जाने भर से वह रह ही नहीं जाएगा जो अब है तो फिर ऐसे दावे का क्‍या लाभ।
मेरा जंतर आसान है अगर स्‍पेस पर क्‍लेम व्‍यक्तिगत रूप से अपने लिए है तो मुझे ये स्‍पेस क्‍लेम करने की क्रिया फूहड़ जान पड़ती है जबकि अगर स्‍पेस व्‍यक्तिगत रूप से अपने लिए नहीं बल्कि यह एक व्‍यापक जाति का स्‍पेस है तो दमभर इस पर दावा जरूर करना चाहिए। इसी तरह कोई व्‍यक्ति या समूह आपके जायज स्‍पेस से अपदस्‍थ करे तो भले आप डटें लेकिन अगर कोई अपना साझे स्‍पेस पर दावा ठोंके तो उस पर जिद करना निरर्थक है। मैं सालों तक जिस दोस्‍त के साथ स्‍कूल में बैठा उससे हर लड़ाई के बाद चुपचाप अलग जा बैठने का लाभ यह था कि फिर  से कुट्टी से अब्‍बा होने पर न कभी शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा न माफी मॉंग लेना इतना मुश्किल हुआ।