लवली हैरान हो रही हैं कि पत्रकार-साहित्यकार बिरादरी भला हम ब्लॉगरों को क्या मानती है। लवली की चिंता एकदम जायज है लेकिन लवलीजी ऐसी तानकाशियों को जाने दें। ब्लॉगिंग शब्द के जनतांत्रीकरण से शक्ति पाती है। कल मेल बाक्स में अपनी कुछ पोस्टों पर बालासुब्रह्मण्यम साहब की कुछ टिप्पणियॉं देखने को मिली...ये सभी नई पोस्टें नहीं थीं न ही सभी टिप्पणियॉं लेखन की तारीफ ही थीं पर यदि आप इन टिप्पणियों को देखें तो सहज समझ आता है कि क्यों आपका लिखा पत्रकारीय लेखन से ज्यादा दीर्घायु है..इसलिए नहीं कि ये उससे अच्छा है या किसी अन्य कोटि में 'ग्रेंड' की कोटि का है वरन इसलिए कि ये अजर है तथा इसलिए कि औसत है और औसतपन का ही उत्सव है।
इन अपेक्षाकृत लंबी टिप्पणियों में से पहली दूसरी प्रति- बेबात का बैकअप पर थी -
मसिजीवी जी आप मुझे क्षमा करेंगे। आज सर्फिंग करते-करते आपके ब्लोग पर आ धमका, इतना अच्छा लगा कि एक के बाद एक पोस्ट पढ़ता गया और उन पर अपनी सहमति-असहमति दर्ज करता गया, अपने आपको रोक न सका। अब उन्हें अप्रूव करना विप्रूव करना आपके हाथ!
अब विषय पर आते हैं, हजारी प्रसाद द्विवेदी की। आपने उन किताबों को अनपढ़े ही अलमारी में ठूंस दिया, पर पढ़ लेते तो यह टिप्पणी आपको और भी मजेदार लगती। शायद आपने ये किताबें पहले जरूर पढ़ी होंगी।
बात यह है कि ये किताबें हिंदी में प्लेगियरिज्म के सबसे उम्दा मिसालें हैं। यकीन नहीं होता? हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे महिमा-मंडित, बीएचयू के वाइस चैंसलर कैसे प्लैगियरिस्ट हो सकते हैं? सब कुछ बताता हूं, फिर आप मानेंगे। और उन्होंने नकल की भी है, तो किसी ऐरे-गैरे-नत्थू गैरे की नहीं, बल्कि अपने ही पूर्वज सुप्रसिद्ध आचार्य रामचंद्र शुक्ल की पुस्तकों की।
अभी हाल में मैं पढ़ रहा था आचार्य शुल्क की एक ऐंथोलजी, जिसके संपादक हैं डा. रामविलास शर्मा। अपनी लंबी संपादकीय टिप्पणी में डा.शर्मा ने यह सनसनीखेज खुलासा किया है। और अपनी बात की पुष्टि में इतने सारे उद्धरण दिए हैं कि उनकी इस स्थापना से इन्कार नहीं किया जा सकता। पुस्तक का नाम हैं - लोक जागरण और हिंदी साहित्य, प्रकाशक वाणी प्रकाशन। यदि पूरी भूमिका पढ़ने का समय न हो, तो "इतिहास लेखन की मौलिकता" वाला अनुभाग अवश्य पढ़ें।
मैंने रामविलासजी का पिछली टिप्पणी में भी जिक्र किया है। मैं उनका कायल हो गया हूं। उनकी एक-दो किताबें पुस्तकालय से लाकर पढ़ी थीं। इतना प्रभावित हुआ कि अच्छी-खासी निधि खर्च करके (लगभग पांच-छह हजार)उनकी सारी किताबें दिल्ली जाकर खरीद लाया। अब उन्हें एक-एक करके पढ़ रहा हूं। आपको भी सलाह दूंगा कि समय निकालकर उन्हें पढ़ें (और किताबों से अलमारी की शोभा बढ़ाने की अपनी आदत से बाज आएं :-))
आपने अंबेडकर की बात की है इस पोस्ट में। मैं डा. रामविलास शर्मा की एक किताब की ओर आपका ध्यान खींचना चाहूंगा जिसमें उन्होंने अंबेडकर की विचारधारा की समीक्षा की है। यदि आप अंबेडकर की संपूर्ण वाङमय को न पढ़ सकें, तो भी इस किताब को अवश्य पढ़ें। इसमें अंबेडकर के अलावा गांधी जी और लोहिया की विचारधाराओं की भी समीक्षा है। हमारे वर्तमान मूल्यहीनतावाले समय के लिए यह किताब अत्यंत प्रासंगिक है। हमारे युवा, और हम भी, गांधी जी को लेकर काफी असमंजस में रहते हैं, हम उनके बारे में और उनके विचारों के बारे में कोई राय नहीं बना पते। डा. शर्मा की यह किताब गांधी जी के विचारों को ठीक तरह से समझाने में कमाल करती है।
पुस्तक का नाम है - गांधी, आंबेडकर, लोहिया और भारतयी इतिहास की समस्याएं; लेखक - डा. रामविलास शर्मा, प्रकाशक - वाणी प्रकाशन
अपने ब्लोग में साहित्य की इसी तरह चर्चा करते रहें, बहुत अच्छा काम कर रहे हैं।
एक अन्य टिप्पणी मार्क्स - पराजित शत्रु के लिए खिन्न मन पर है
मार्क्सवाद के दुनिया के सबसे बड़े व्याख्याता अपनी भाषा हिंदी के डा. रामविलास शर्मा हैं। भले ही विश्वविद्यालय पाठ्यक्रम में मार्क्सवाद का कद छोटा कर दिया गया हो, डा. रामविलास जी पुस्तकें धड़ल्ले से बिक रही हैं। उनकी लगभग सभी पुस्तकें (मार्क्स और पिछड़े हुए समाज, भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद, पाश्चात्य दर्शन और सामाजिक अंतर्विरोध: थलेस से मार्क्स तक, आदि... डा. शर्मा ने अपने सुदीर्घ जीवनकाल में 100 से ज्यादा पुस्तकें लिखीं हीं, और मार्क्स के दास कैपिटा (पूंजी) का अनुवाद भी हिंदी में किया है), वाणी, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली से उपलब्ध हैं, और सभी पुस्तकों के रीप्रिंट पर रीप्रिंट निकलते जा रहे है, क्या यह इस ओर सूचित करता है कि मार्क्सवाद अब अजायबघर का सामान बन गया है। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भारत के कुल क्षेत्र के एक तिहाई हिस्से पर माओवादियों की तूती बोलती है, जिनके भाई-बंद अब नेपाल में भी कमान संभाले हुए हैं। ऐसे में विश्वविद्यालय मार्क्स से आंख मूंद लें, तो क्या फर्क पड़ता है। आपने शुतुर्मुर्ग के बारे में तो सुना ही होगा कि खतरे के वक्त वह क्या करता है। ये विश्वविद्यालय भारतीय समाज के शुतुर्मुग ही हैं।
एक अन्य पोस्ट है Alt+Shift की पलटी और ' नितांत निजी' पीड़ा (कैसी अजब बात है कि मुझे अपनी लिखी पोस्टें कम ही पसंद आती हैं, सुनील, समीर, अशोक पांडे या अनूप को पढ़ते हुए यूँ भी खुद को पसंद कर पाना आसान नहीं, पर ये एक ऐसी पोस्ट है जो मुझे विशेष ब्लॉगिंया पोस्ट लगती है...पर अफसोस इसे कम ही पढ़ा या पसंद किया गया :-( )
जब आप ओल्ट + शिफ्ट से टोगल करते हैं, तो यह पता लगाना कि आप ट्रफाल्गर स्क्वेयर (अंग्रेजी) में हैं या लखनऊ के चौक (हिंदी) में बहुत आसान है। कंप्यूटर स्क्रीन के ठेठ नीचे की नीली पट्टी (जिसे टाक्स बार कहा जाता है, और जिसमें स्टार्ट आदि बटन होते हैं) को देखिए। उसमें भाषा प्रतीक दिखाई देगा, HI हिंदी के लिए, और EN अंग्रेजी के लिए। हर बार जब आप आल्ट-शिफ्ट करें यह प्रतीक बदलेगा। बिल्लू बाबू (बिल गेट्स) ने हर चीज का इंतजाम किया है, आप चिंता क्यों करते हैं इतना!!
आखिर में एक और पोस्ट क्या भारतीय कम्यूनिस्ट चीनी हितों के लिए काम कर रहे हैं
नहीं ऐसी बात तो नहीं लगती, साम्यवादी दल के नेता उतने ही देश भक्त हैं जितने कि हमारे राहुल गांधी, आडवाणी, वाजपेयी, मनमोहन, आदि। साम्यवादी अलग चश्मे से दुनिया को देखते हैं। उनके लिए आम आदमी का हित पहले आता है, चाहे वह मजदूर हो, किसान हो, महिला हो, बेरोजगार हो, इत्यादि। परमाणु करार का इनसे कोई संबंध नहीं है। उसका संबंध है अमरीका के बड़े-बड़े महाजन (पढ़ें बैंक), अस्त्र-निर्माता, और भारत में उनके सहयोगी (यहां के धन्नासेठ, विदेशी कंपनियों के दलाल, इत्यादि)। इनके लिए यह करार आवश्यक है। अब अमरीका पूंजीवाद के उस स्तर पर पहुच गया है जहां उसकी आमदनी का मुख्य स्रोत उसके पास इकट्ठा हो गई अकूत पूंजी पर प्राप्त ब्याज और मुनाफा है, एक दूसरा जरिया अस्त्रों की बिक्री है। भारत में भारी पूंजी लगाने से पहले वह सुनिश्चित करना चाहता है कि वह पूंजी यहां सुरक्षित रहेगी। इसीलिए वह यह करार चाहता है। इस करार के बिना वह भारत को अस्त्र भी नहीं बेच सकता, जो उसकी आमदनी का मुख्य जरिया है।
साम्यवादी दल और परमाणु करार के अन्य विरोधी नहीं चाहते कि उपर्युक्त अमरीकी उद्देश्यों को पूरा करने में अपने देश के हितों को ताक पर रखकर हम बिना सोचे कूद पड़ें।
हमारी प्राथमिकता परमाणु करार करके अमरीका की पूंजी को यहां खुली छूट देना या अमरीका से महंगे-महंगे अस्त्र खरीदना न होकर, गरीबी, निरक्षरता, कुस्वास्थ्य, महिलाओं और बच्चों का उत्पीड़न आदि को दूर करना है। साम्यवादी दल हमेशा से यही कहता आ रहा है कि हमें इस ओर ज्यादा ध्यान देना चाहिए, यही तो यूपीए सरकार के कोमन मिनिमम प्रोग्राम में भी कहा गया है। पर मनमोहन देशी-विदेशी धन्ना-सेठों और अस्त्र-व्यापारियों की ओर झुकते जा रहे हैं, जो हमारे देश के हित में नहीं लगता। भूलना नहीं चाहिए कि वे लंबे समय तक विश्व बैंक के सलाहकार रह चुके हैं और उनकी विचारधारा अमरीका-परस्त है।
फिलहाल में इन टिप्पणियों के कथ्य पर टिप्पणी नहीं कर रहा हूँ, टिप्पणी में बहुपठता, वैचारिक झुकाव दिख रहा है। पर सबसे अहम ये बात सोचें कि सुब्रह्मण्यम साहब ने कितनी देर लगाकर मेरी इन पोस्टों को पढ़ा होगा इन पर ये टिप्पणियॉं की होंगी...शायद कुछ और पोस्ट भी देखी हों जिन्हें उन्होंने नजरअंदाज करने लायक समझा हो...कुल मिलाकर कहना ये कि पाठक ने इतना समय मुझे दिया अपनी अमूल्य राय भी दी...अनजान शख्स जिनकी प्रोफाइल तक सार्वजनिक नहीं है।
ब्लॉग शुरू होने से पहले ही मेरी एक किताब प्रकाशित है जिसके छ: साल में तीन संस्करण आ चुके हैं, पुस्तक की समीक्षा भी प्रकाशित हुई थीं, पुस्तक पर एक राष्ट्रीय कहा जाना वाला पुरस्कार मिला था जिसमें बीस हजार रुपए हमें नकद प्राप्त हुए थे, हमें हर साल एक छोटी सी राशि रायल्टी के नाम पर भी मिलती है.... पर इतने सालों में आज तक एक बंदा नहीं टकराया जिससे बात करते हुए या तारीफ सुनते हुए लगे कि अगले ने किताब पढ़ी है...और उसकी टिप्पणी का कोई मतलब है मुझे पूरा विश्वास है कि रायल्टी सिर्फ लाइब्रेरी खरीद की वजह से मिलती है...समीक्षा मुफ्त की किताब मिलने के एवज में मिली तथा पुरस्कार इसलिए कि पुस्तक के विषय पर किताबें तब लिखी ही नहीं जा रही थीं..या अंधों में काणा राजा वाली बात रही होगी।
अब आप ही बताएं कि मैं क्यों अपने ब्लॉगर होने को छापे का लेखक होने से ज्यादा अहम न मानूं। अगर एक सुब्रह्मण्यम साहब ही अकेली वजह होते तो भी मैं ब्लॉगर होना ही चुनता।