Saturday, September 22, 2007

अन्‍याय और अवमानना - चुप रहना अपराध है

लेख मेरा नहीं है, मौलिक नहीं है। दिलीप मंडल का है जो भड़ास पर है, रिजेक्‍ट माल पर है और समकालीन जनमत पर भी है। फिर भी यहॉं दिया जा रहा है, अपने समर्थन को व्‍यक्‍त करनेके लिए।

बोलो, कि चुप रहोगे तो अपराधी कहलाओगे


दिलीप मंडल

1974 में पत्रकारों और लेखकों के बड़े हिस्से ने एक गलती की थी। उसका कलंक एक पूरी पीढ़ी ढो रही है। इमरजेंसी की पत्रकारिता के बारे में जब भी चर्चा होती है तो एक जुमला हर बार दोहराया जाता है- पत्रकारों को घुटनों के बल बैठने को कहा गया और वो रेंगने लगे। इंडियन एक्सप्रेस जैसे अपवाद उस समय कम थे, जिन्होंने अपना संपादकीय खाली छोड़ने का दम दिखाया था। क्या 2007 में हम वैसा ही किस्सा दोहराने जा रहा हैं?


मिडडे में छपी कुछ खबरों से विवाद की शुरुआत हुई, जिसके बारे में खुद ही संज्ञान लेते हुए हाईकोर्ट ने मिड डे के चार पत्रकारों को अदालत की अवमानना का दोषी करार देते हुए चार-चार महीने की कैद की सजा सुनाई है। इन पत्रकारों में एडीटर एम के तयाल, रेजिडेंट एडीटर वितुशा ओबेरॉय, कार्टूनिस्ट इरफान और तत्कालीन प्रकाशक ए के अख्तर हैं। अदालत में इस बात पर कोई जिरह नहीं हुई कि उन्होंने जो लिखा वो सही था या गलत। अदालत को लगा कि ये अदालत की अवमानना है इसलिए जेल की सजा सुना दी गई। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मामले की सुनवाई रोकने की अपील ठुकरा दी है। कार्टूनिस्ट इरफान ने कहा है कि चालीस साल कैद की सजा सुनाई जाए तो भी वो भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्टून बनाते रहेंगे।



मिडडे ने भारत के माननीय मुख्य न्याधीश के बारे में एक के बाद एक कई रिपोर्ट छापी। रिपोर्ट तीन चार स्थापनाओं पर आधारित थी।
- पूर्व मुख्य न्यायाधीश सब्बरवाल के सरकारी निवास के पते से उनके बेटों ने कंपनी चलाई।
- उनके बेटों का एक ऐसे बिल्डर से संबंध है, जिसे दिल्ली में सीलिंग के बारे में सब्बरवाल के समय सुप्रीम कोर्ट के दिए गए आदेशों से फायदा मिला। सीलिंग से उजड़े कुछ स्टोर्स को उस मॉल में जाना पड़ा जो उस बिल्डर ने बनाया था।
- सब्बरवाल के बेटों को उत्तर प्रदेश सरकार ने नोएडा में सस्ती दर पर प्लॉट दिए। ऐसा तब किया गया जबकि मुलायम सिंह यादव और अमर सिंह के मुकदमे सुप्रीम कोर्ट में चल रहे थे।


ये सारी खबरें मिड-डे की इन लिंक्स पर कुछ समय पहले तक थी। लेकिन अब नहीं हैं। आपको कहीं मिले तो बताइएगा।
http://mid-day.com/News/City/2007/June/159164.htm

http://mid-day.com/News/City/2007/June/159165.htm

http://mid-day.com/News/City/2007/June/159169.htm

http://mid-day.com/News/City/2007/June/159168.htm

http://mid-day.com/News/City/2007/June/159163.htm

http://mid-day.com/News/City/2007/June/159172.htm


अदालत के फैसले से पहले मिड-डे ने एक साहसिक टिप्पणी अपने अखबार में छापी है। उसके अंश आप नीचे पढ़ सकते हैं।
-हमें आज सजा सुनाई जाएगी। इसलिए नहीं कि हमने चोरी की, या डाका डाला, या झूठ बोला। बल्कि इसलिए कि हमने सच बोला। हमने जो कुछ लिखा उसके दस्तावेजी सबूत साथ में छापे गए।
हमने छापा कि जिस समय दिल्ली में सब्बरवाल के नेतृत्व वाले सुप्रीम कोर्ट के बेंच के फैसले से सीलिंग चल रही थी, तब कुछ मॉल डेवलपर्स पैसे कमा रहे थे। ऐसे ही मॉल डेवलपर्स के साथ सब्बरवाल के बेटों के संबंध हैँ। सुप्रीम कोर्ट आदेश दे रहा था कि रेसिडेंशियल इलाकों में दफ्तर और दुकानें नहीं चल सकतीं। लेकिन खुद सब्बरवाल के घर से उनके बेटों की कंपनियों के दफ्तर चल रहे थे।
लेकिन हाईकोर्ट ने सब्बरवाल के बारे में मिडडे की खबर पर कुछ भी नहीं कहा है।
मिड डे ने लिखा है कि - हम अदालत के आदेश को स्वीकार करेंगे लेकिन सजा मिलने से हमारा सिर शर्म से नहीं झुकेगा।


अदालत आज एक ऐसी पत्रकारिता के खिलाफ खड़ी है, जो उस पर उंगली उठाने का साहस कर रही है। लेकिन पिछले कई साल से अदालतें लगातार मजदूरों, कमजोर तबकों के खिलाफ यथास्थिति के पक्ष में फैसले दे रही है। आज हालत ये है कि जो सक्षम नहीं है, वो अदालत से न्याय पाने की उम्मीद भी नहीं कर रहा है। पिछले कुछ साल में अदालतों ने खुद को देश की तमाम संस्थाओं के ऊपर स्थापित कर लिया है। 1993 के बाद से हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति में सरकार की भूमिका खत्म हो चुकी है। माननीय न्यायाधीश ही अब माननीय न्यायाधीशों की नियुक्ति के बारे में अंतिम फैसला करते हैँ।पूरी प्रक्रिया और इस सरकार की राय आप इस लिंक पर क्लिक करके देख सकते हैं। बड़ी अदालतों के जज को हटाने की प्रक्रिया लंगभग असंभव है। जस्टिस रामास्वामी के केस में इस बात को पूरे देश ने देखा है।


और सरकार को इस पर एतराज भी नहीं है। सरकार और पूरे पॉलिटिकल क्लास को इस बात पर भी एतराज नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट ने संविधान में जोडी़ गई नवीं अनुसूचि को न्यायिक समीक्षा के दायरे में शामिल कर दिया है। ये अनुसूचि संविधान में इसलिए जोड़ी गई थी ताकि लोक कल्याण के कानूनों को न्यायिक समीक्षा से बचाया जा सके। आज आप देश की बड़ी अदालतों से सामाजिक न्याय के पक्ष में किसी आदेश की उम्मीद नहीं कर सकते। सरकार को इसपर एतराज नहीं है क्योंकि सरकार खुद भी यथास्थिति की रक्षक है और अदालतें देश में ठीक यही काम कर रही हैँ।


कई दर्जन मामलों में मजदूरों और कर्मचारियों के लिए नो वर्क-नो पे का आदेश जारी करने वाली अदालत, आरक्षण के खिलाफ हड़ताल करके मरीजों को वार्ड से बाहर जाने को मजबूर करने वाले डॉक्टरों को नो वर्क का पेमेंट करने को कहती है। और जब स्वास्थ्य मंत्रालय कहता है कि अदालत इसके लिए आदेश दे तो सुप्रीम कोर्ट कहता है कि इन डॉक्टरों को वेतन दिया जाए,लेकिन हमारे इस आदेश को अपवाद माना जाए। यानी इस आदेश का हवाला देकर कोई और हड़ताली अपने लिए वेतन की मांग नहीं कर सकता है। ये आदेश एक ऐसी संस्था देती है जिस पर ये देखने की जिम्मेदारी है कि देश कायदे-कानून से चल रहा है।


अदालतों में भ्रष्टाचार के मामले आम है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशन की इस बारे में पूरी रिपोर्ट है। लगातार ऐसे किस्से सामने आ रहे हैं। लेकिन उसकी रिपोर्टिंग मुश्किल है।


तो ऐसे में निरंकुश होती न्यापालिका के खिलाफ आप क्या कर सकते हैँ। तेलुगू कवि और राजनीतिक कार्यकर्ता वरवर राव ने हमें एक कार्यक्रम में बताया था कि इराक पर जब अमेरिका हमला करने वाला था तो वहां के युद्ध विरोधियों ने एक दिन खास समय पर अपने अपने स्थान पर खड़े होकर आसमान की ओर हाथ करके कहा था- ठहरो। ऐसा करने वाले लोगों की संख्या कई लाख बताई जाती है। इससे अमेरिकी हमला नहीं रुका। लेकिन ऐसा करने वाले बुद्धिजीवियों के कारण आज कोई ये नहीं कह सकता कि जब अमेरिका कुछ गलत करने जा रहा था तो वहां के सारे लोग बुश के साथ थे। क्या हममे है वो दम?

Thursday, September 20, 2007

चेतो शीला दीक्षित अक्षरधाम और कॉमनवैल्‍थ दिल्‍ली के शमशान सिद्ध होंगे

बहुत बार दोहराने से कई वाक्‍यॉंश अपने अर्थ खो बैठते हैं। 'यमुना मर रही है' भी एक ऐसा ही वाक्‍यॉंश है। रामसेतु के संदभ्र में जब बार बार पर्यावरण का सवाल उठाया जा रहा है तो ऐसे में कुछ रामभक्‍तों से ये सवाल पूछा जाना बेहद प्रासंगिक है कि जब दिल्‍ली के रिवरबैड पर अक्षधाम नाम के 'धार्मिक माल' का निर्माण किया जा रहा था (कल जारी नोटिस में मंदिर से पूछा गया है कि आपकी व्‍यवसायिक गतिविधियों की व्‍याख्‍या करें)  तब क्‍यों चुप्‍पी थी। यहॉं यह नहीं कहा जा रहा है कि रामसेतु के मामले में यदि कोई पार्यावरणीय चिंताएं हों तो उन्‍हें व्‍यक्‍त न किया जाए पर इस कराहती मरणासन्‍न नदी दिल्‍ली पर भी एक नजर डालें।

yamunapolluted 

दिल्‍ली में 2010 में एक बड़ा जमावड़ा खेल खिलाडि़यों का होने वाला है जिसे कॉमनवेल्‍थ खेल कहा जाता हे। इसकी कीमत 70,000 करोड़ रुपए आंकी जा रही है जो किसकी जेब से आएगा हमें पता ही है और ये किसकी जेब में जाने वाला है इससे भी हम अपरिचित नहीं हैं। पर एक बात जिससे हम अपरिरिचित हैं वह यह कि शायद इसकी कीमत चुकाने में हमें इस शहर के अस्तित्‍व से ही हाथ धोना पड़ेगा। कैसे ?

दिल्‍ली का अस्तित्‍व प्राचीन काल से ही यमुना पर निर्भर रहा है, दिल्‍ली की सभी वावडि़यों, कुओं और बरसाती नदियों को खत्‍म कर चुकने के बाद अब हमने अनी यमुना को भी समाप्‍त प्राय: कर दिया है। और इस ताबूत की आखिरी कील है कॉमनवेल्थ खेलगॉंव जो यमुना के खादर में बनाया जा रहा है। ये खादर ही वह बचा हुआ एकमात्र सहारा है जो बरसात में पानी का संचय भूजल के रूप में कर अब तक दिल्‍ली को पानी मुहैया कराता रहा है। 10000 हेकटेयर का यह क्षेत्र जल को सोख सकने की दुनिया में सबसे अधिक खमता वाला क्षेत्र हे जो 70% तक जल सोखने की क्षमता रखता है।

इस त्रासद कहानी की शुरूआत अक्षरधाम मंदिर नाम की इमारत बनने से होती है।akshardham रामभक्‍त पार्टी के प्रधानमंत्री ने तमाम आपत्तियों को नजरअंदाज करते हुए इस निर्माण की अनुमति दी तो मानो दिल्‍ली सरकार को बस मौका ही मिल गया है। उसने यमुना प्‍लान नाम से बड़े पैमाने पर निर्माण कर इस रिवरबैड को समाप्‍त कर देने की योजना बनाई है। यदि वह हो गया तो जिसे रोकने की फिलहाल तो किसी में इच्‍छाशक्ति नहीं ही दिखाई दे रही है तो हमारा शहर ओर इस देश की राजधानी एक जींत शहर के रूप में समापत हो जाएगी क्‍योंकि उसके सभी जलस्रोत इस निर्माण के बाद समाप्‍त हो चुके होंगे, भूजल भी।

इस सारी विनाशकारी प्रकिया के खिलाफ जल सत्‍याग्रह पिछले पचास दिनों से दिल्ली में चल रहा है। शिक्षिका के खिलाफ नकली स्टिंग से भीड़ भड़काकर दंगे करवा सकने वाला ताकतवर मीडिया क्‍या कर रहा है वह ही जानता होगा। राज्‍य की मुख्‍यमंत्री ने बेशर्मी से विधानसभा में ही कह डाला कि इस 10000 हेकटेयर जमीन का दोहन कर दिल्‍लीवासियों को लक्‍जीरियस जिंदगी उपलब्‍ध करवाना उनका अधिकार है।  मानो हमें पता नहीं कि यह लग्‍जरी किसे मिलेगी और इसकी कीमत कौन चुकाने वाला है।

Wednesday, September 19, 2007

डिबेटिंग पोडियम से अतीत में एक टाईम ट्रेवल

साहित्य शास्‍त्र में एक अवधारणा 'सहृदय' की होती है जिसका मतलब होता है साहित्‍य का सुधि पाठक होना और यह काम आसान नहीं है, इसकी भी बाकायदा कुछ योग्यताएं हैं। हर ऐरा गैरा सहृदय नहीं हो सकता, साहित्‍य का आनंद नहीं ले सकता, साहित्‍य का रसास्‍वादन कर पाना कठिन काम है। ऐसे ही एक ओर कठिन काम है और इसकी भी योग्‍यता (इस 'भी' पर गौर करें) का अभाव हमें खुद में दिखाई देता है। ये है नॉस्‍ताल्जिक हो सकने की योग्‍यता। अव्‍वल तो अपनी किताबों में हमने कोई सूखे गुलाब दबा नहीं रखे हैं अगर कोई देखें भी तो उन्‍हें छूते ही हम बेसाख्‍ता भावुक हो नहीं जाते हैं। तो बात यह कि नॉस्‍ताल्जिक हो पाना के लिए जो भावनात्मक निर्मिति चाहिए, शायद वह ही हम में कम है। हम इसे किसी गव्र से नहीं बता रहे हैं, बाकायदा एक कमी है। अगर हम सिर्फ नॉस्‍ताल्जिक हो सकने वाले होते तो कम स कम दोगुना लिख चुके होते। चाटवाले पर लिखते, टंकी वाले मैदान पर लिखते, घंटाघर पर लिखते, पीपल पर, अमरूद पर, जय जवान चाय स्‍टाल पर, इस पर उस पर न जाने किस किस पर लिखते। इसलिए जिस दिन हम थोड़ा बहुत नॉस्‍तॉल्जिक हो पाते हैं, बाद में बहुत खुश होते हैं, देखा कर दिखाया आखिर हम इतने भी एब्‍नार्मल नहीं हैं।

podium 

आज ऐसा ही हुआ। 'मीडिया संस्‍कृति युवा पीढ़ी को बरबाद कर रही है' जैसा कि समझा जा सकता है कि एक वाद विवाद प्रतियोगिता का विषय था। हमें दो और साथियों के साथ निर्णय देना था। वो तो जो था सो था पर वक्‍ताओं को सुनना अतीत की यात्रा पर जाने के समान था। वीरेन्‍द्र ध्‍यानी, कंचन जैन,  आभा मेहता, मनोज, विकास, नीलू रंजन,   हरिश्‍चंद्र जोशी, मनीष जैन और भी न जाने कितने नाम हमारे डिबेटिंग युग के। और वह युग खुद ही - मुस्‍कराती जीतें व मोहक पराजय।  पिलानी, वर्धा, सेंट स्‍टीफेंस, हंसराज, ये और वो। ये डिबेटिंग फट्टा और वह शैंपेन का झाग, ताबूत की आखिरी कील जैसे जुमले। कई बार वक्‍ता बोलना शुरू करता था और हम लगते थे मुस्‍कराना ये सोचकर कि अब ये बोलेगा- 'अध्‍यक्ष महोदय मेरे विपक्षी मित्र ने विषय पढ़ा तो है लेकिन दुर्भाग्‍य से समझा नहीं :)'  और फिर धीरे धीरे जजों को तक पहचानने लगे- हंसराज से डा. रमा  या फिर स्‍टीफेंस से डा. विनोद चौधरी, वेद प्रताप वैदिक या फिर हरीश नवल। 1992 और 1993 के सत्र में तो पूरे दो सत्र microphoneकी पढ़ाई का खर्च ही निकाला था वाद विवाद प्रतियोगिताओं के इनामों से। हम बाहर से आए वक्‍ताओं के सामने अक्‍सर यह गर्व से बताते थे कि हमारे विश्‍वविद्यालय का डिबेटिंग सर्किट (आज के टेनिस सर्किट के समान) बेहद संपन्‍न है। उस जमाने की बनी कुछ दोस्तियॉं आज तक चली आती हैं। दूसरे की राय का सम्‍मान करना, भले ही वह धुर-विरोधी हो  तब ही सीखा। यह भी कि बहती राय के खिलाफ कहना साहस की बात है इसलिए सम्‍मान की बात है। और यह भी कि जो विचार में आपका विरोधी है वह असल जीवन सबसे प्रिय व अच्‍छा मित्र हो सकता है, होना चाहिए।

  सारे पाठ याद रहे कि नहीं कह नहीं सकता पर इतना तय है कि डिबेटिंग के पोडियम पर एक बार चढ़ा मानुष, कुछ अलग हो जाता है। अगर हम जैसे शुष्‍क, खुर्राट, ठूंठ को यह चीज़ नॉस्‍ताल्जिक बना सकती है, तो कुछ भी कर सकती है।

Sunday, September 16, 2007

बॉलआऊट गैर क्रिकेटीय है

भारत ने पाक को एक कांटे के मैच में 'हराया' मैच तो खैर टाई हुआ था पर एक नए अंदाज में टाईब्रेकर का आयोजन हुआ जिसके तहत खाली विकेट पर गेंदबाजी करके गिल्लियॉं उड़ाकर यह तय किया गया कि हमारे गेंदबाजों ने (उनमें रोबिन उत्‍थपा शामिल हैं) बचपन में ज्‍यादा कंचे खेले थे इसलिए भारत जीत गया। हमें पहले भी लगा कि टी-20 में क्रिकेटीय तत्‍व कम हैं और इस जुगाड़ से तो और भी लगा। किंतु रवि शास्‍त्री ने जब अंपायर से पूछा जो खुद पहली बार बॉल आऊट का आयोजन करने वाले थे कि भई ये तो क्रिकेट नहीं है...तो अंपायर ने गोल मोल सा कहा कि है तो गेंदबाजी का कौशल ही। हमने उम्‍मीद जाहिर की थी कि प्रभाष जोशी जरूर इस पर कुछ कह पाएंगे, उनहोंने हमें निराश नहीं किया है।

sehwag

आज के जनसत्‍ता में इस टी-20 पर, विशेषकर बॉल आऊट पर अपनी राय जाहिर करते हुए कहा है कि जहॉं क्रिकेट,  गेंदबाजी, क्षेत्ररक्षण, बल्‍लेबाजी आदि तत्वों के समन्वित रूप से बनती है वहीं खाली विकेट पर निशाना लगाना तो किसी भी तरह क्रिकेट नहीं ही है, क्योंकि क्रिकेट का कोई भी तत्‍व अकेले क्रिकेट का विकल्‍प नहीं हो सकता।

आगे इस बॉल आऊट जुगाड़ की जड़ में जाते हुए प्रभाष बताते हैं कि इंग्‍लैंड में क्रिकेट को फुटबॉल से कड़ी प्रतियोगिता करनी पड़ती है तथा उससे लड़ने पर ही वहॉं क्रिकेट का वजूद निर्भर करता है इसलिए फुटबॉल के लोकप्रिय तत्‍वों को क्रिकेट में लाया गया है पर यह ध्‍यान नहीं रखा गया कि इससे क्रिकेट, क्रिकेट रह भी जाती हे कि नहीं।

Saturday, September 15, 2007

'मित्रो मरजानी' के अनुवाद का शीर्षक क्‍या हो

हमारी बेहद विद्वान सहयोगी हैं, जब मैं इसी कॉलेज में विद्यार्थी था तो वे मेरी शिक्षिका थीं, इस लिहाज से मैं उनका दोहरा सम्‍मान करता हूँ- वे कक्षा लेने ऊपर जा रहीं थीं मैं कक्षा लेकर उतर रहा था, हम सीढि़यों पर मिले। उन्होंने स्‍नेह से चुनौती हमारी ओर उछाली कि मैं कक्षा लेकर आती हूँ, तब तक तुम जरा सोचो कि मित्रो मरजानी के अंग्रेजी अनुवाद का शीर्षक क्‍या हो-

इस बात को आज का पूरा दिन बीत गया है ओर मैं कुद नहीं सोच पाया, जबकि मैं खूब कोशिश कर चुका हूँ। मित्रो तो चलो नाम है पर 'मरजानी' जो हे तो गाली पर एंडीयरमेंट -स्‍नेह के साथ है। अब कमबख्‍त इस सुहाली का अनुवाद क्‍या हो। इससे पहले कि आप हमारी सहायता के लिए गगूलिंग शुरू करें , बता दें कि यह कोशिश हम कर चुके हैं- आज ही एक बार और उपन्‍यास को फिर से पलट चुके हैं।

नेट शोध से ही पता चला कि कृष्‍णा सोबती अनुवाद करने के लिहाज से हिंदी की शायद सबसे मुश्किल रचनाकार हैं। उनके 'दिलो दानिश' के अनुवाद का शीर्षक है- Heart has its reasons! सच कहूँ मुझे तो नाम ठीक ही लगा पर मुझे बताया गया कि ये शीर्षक को बहुत सटीक नहीं ही माना गया था और खुद सोगतीजी को भी कुछ खास पसंद नहीं ही आया था। ऐसे में मित्रो मरजाणी के लिए शीर्षक तो टेढ़ी खीर है- ये कोई सीधा उपन्‍यास है भी नहीं। krishna_sobti

मित्रो की कहानी है एक सच ही मरजानी की कहानी है जो स्‍नेही है, ममतामयी भी है ठीक पर उसमें इच्छाएं, वासनाएं हैं....रहती हैं। ये इच्‍छाएं हैं ओर पुजाबी परिवेश में खूब मक्‍त भाषा में लिखा उपन्‍यास, बस मित्रो मरजानी ही है, अब आप ही बताएं इसका अंगेजी अनुवाद क्‍या हो।

Friday, September 14, 2007

हर बजरंगी रामसेतु एक ट्रॉल है

हलफनामों की लड़ाई शुरू हो गई है, त्रिशूल लहराते बजरंगियों की बेरोजगारी दूर हो गई है। अब उनके पास करने के लिए काफी कुछ है और कम से कम अगले चुनावों तक तो रहने ही वाला है।

 

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याद पड़ता है कि हम ब्‍लॉगरी में इस किस्म के आचरण से दोचार हो चुके हैं,  हॉं यही तो ट्राल था। पहचान के मारे लोगों द्वारा उक्‍साऊ किस्‍म की हरकतें और लो अब राजनीति में भी होने लगा। मामला क्‍या है यह कि राजा दशरथ के पुत्र ने कभी एक पुल बनाया था और उसके अवशेष पाक जलडमरूमध्‍य के नीचे दबे हुए हैं उन्‍हें न खोदा जाए... क्या तर्क है। ऊपर से सरकार और भी तुर्रम खां है जो कोर्ट से यह तय करने को कह रही है कि बताओ राम थे कि नहीं।

राम सेतु पर हमें कुछ नही कहना, हमने तो वजीराबाद के सिग्‍नेचर सेतु पर ही कुछ नहीं कहा जो हमारे घर से दो किलोमीटर पर बनना था और हमारी जिंदगी पर असर डालता और अब शीला दीक्षित आंटी ने तय किया है कि नहीं बनाया जाएगा, तो भला इस दो हजार किलोमीटर दूर दबे न जाने किस पुल पर क्‍या कहें। पर हमारे कानून मंत्री ने पूरी बेशर्मी से कहा - 'मैं ब्राह्मण हूँ मुझसे ज्‍यादा राम पर आस्‍था कौन रख सकता है'..

हम ब्राह्मण नहीं है और हर कोई राम पर हमसे ज्‍यादा आस्‍था रख सकता है फिर भी जब सगुणभक्ति पढ़ाते हैं तो बताते हैं कि राम मर्यादा पुरुषोत्‍तम हैं - वे आदर्श राजा, आदर्श भाई, आदर्श पुत्र, आदर्श मित्र और यहॉं तक कि आदर्श शत्रु हैं, पर लगता है इस ब्राह्मण मंत्री ने उनसे किसी आदर्श में कोई आस्‍था नहीं सीखी है (यूँ भी हमारे मंत्रियों की सच्‍ची आस्‍था केवल 'मैडम' के प्रति होती है) वरना वे जानते कि कानून मंत्री को कानूनी दृष्टि से बात करनी थी और बताना था कि 'पुल' का क्या होगा।

इंटरनेट भरा पड़ा है यह प्रमाणित करता कि भई देखो ये जो है उथला समुद्र है और उस पर वो देखो पुल सा ही कुछ है- तुम्‍हीं देखो यार, पर तुम्‍हारे इतने बड़े पुल से दो चार जहाज भर निकलने लायक रास्‍ता दे ही दोगे तो क्‍या रामजी नाराज हो जाएंगे- उन्‍होने भी तो अपनी पत्‍नी को फिर से हासिल करने के लिए पुल बनाया ही था न, यानि यदि उदृदेश्‍य पवित्र हों तो थोड़ी बहुत छेड़ छाड़ समुद्र से की जा सकती है, पुल बनाने या तोड़ने की।

पर थोड़ा वैज्ञानिक दृष्टि से भी देखो वैसे वैज्ञानिक मित्र शास्‍त्रीजी हम से ज्‍यादा योग्‍य हैं पर वे करेंगे तो लोग धर्म को बीच में ले आएंगे इसलिए हम ही कहते हैं हमें तो ज्‍यादा से ज्‍यादा धर्मद्रोही कह बैठोगे- हमारे परिवार वाले भी कह बैठते हैं पर रामजी जहॉं भी हैं जैसे भी हैं वे नाराज नहीं हुए। हॉं तो भई बजरंगियों एक बात बताओ कि ज्ञान- विज्ञान की दिशा सदैव अग्रमुखी होती है- वह सरल से जटिल की ओर चलता है। फिर यहॉं विज्ञान उलटा कैसे चल रहा है कि हजारों साल पहले बहुत प्रगति थी कि समुद्र पर पुल बना लें अब पीछे चले गए... पर जाने दें क्‍या विज्ञान की बातें करनी...भई ये तो आस्‍था का मामला है  ...है तो गूगल अर्थ से तस्‍वीर लो और मंदिर में सजा लो...जलाओ अगरबत्‍ती कौन रोकता है। और अगर पर्यावरण, कोरल जीवन जैसी बातें तो बजरंगियों को उनसे क्‍या लेना लडि़ए पर्यावरण की लड़ाइयॉं उसमें धर्म या हमारे परम आस्‍थावान ब्राह्मण कानून मंत्री को ऊटपटांग हरकतें करने की क्‍या जरूरत है।

हमें तो लगता है कि बजरंगी राम, एक चुनावी ट्रॉल है जिसे हर मतदाता को इग्‍नोर करना चाहिए।

Thursday, September 13, 2007

हवा में रहेगी मेरे ख्‍याल की बिजली

पाक जलडमरूमध्‍य में डूबे किन्‍हीं पत्‍थरों को रामसेतु बताकर त्रिशूल ल‍हराते बंजरंगियों और गीता को राष्‍ट्रीय पवित्र पुस्‍तक घोषित करने पर उतारू जजों द्वारा विषाक्‍त कर दिए गए वातावरण में यदि आप भूल गए हों कि हम भगत सिंह जन्‍म शताब्‍दी वर्ष मना रहे हैं, तो आप की गलती नहीं।

हमारी पीढ़ी भगतसिंह की ऋणी है पर ऐसा सिर्फ इसलिए नहीं है कि वे किसी स्‍वतंत्रता संघर्ष में शामिल थे जिसके नेतृत्‍व का दावा कांगेस ठोंकती है वरन वे जिस लड़ाई में शामिल थे व‍ह तो अभी जारी है। हाल में इस जन्‍मशताब्‍दी वर्ष के अवसर पर कुछ पतली पतली पुस्तिकाएं जारी हुईं- इनमें से एक ये है-

Bhagat Singh

इसमें मुझे अवतार सिंह की पाश की भगत सिंह पर लिखी कविता हाथ लगी। कुछ सपाट पर फिर भी पठनीय, देखें

शहीद भगतसिंह

                                                   पाश

शहीद भगतसिंह

पहला चिंतक था पंजाब का

सामाजिक संरचना पर जिसने

वैज्ञानिक नजरिए से विचार किया था

 

पहला बौद्धिक

जिसने सामाजिक विषमताओं की, पीड़ा की

जड़ों तक पहचान की थी

 

पहला देशभक्‍त

जिसके मन में

समाज सुधार का

एक निश्चित दृष्टिकोण था

 

पहला महान पंजाबी था वह

जिसने भावनाओं व बुद्धि के सामंजस्‍य के लिए

धुधली मान्‍यताओं का आसरा नहीं लिया था

 

ऐसा पहला पंजाबी

जो देशभक्ति के प्रदर्शनकारी  प्रपंच से

मुक्‍त हो सका

 

पंजाब की विचारधारा को उसकी देन

सांडर्स की हत्‍या

असेंबली में बम फेंकने और

फांसी पर लटक जाने से

कहीं अधिक है

भगतसिंह ने पहली बार

पंजाब को

जंगलीपन, पहलवानी व जहालत से

बुद्धिवाद की ओर मोड़ा था

 

जिस दिन फांसी दी गई उसे

उसकी कोठरी से

लेनिन की किताब मिली

जिसका एक पन्‍ना मोड़ा गया था

 

पंजाब की जवानी को

उसके आखिरी दिन से

इस मुड़े पन्‍ने से बढ़ना है आगे

चलना है आगे

 

Tuesday, September 11, 2007

इस नए संस्‍करण में खेल कहॉं है

शास्‍त्रीजी द्वारा प्रस्‍तुत दीपक के लेख में आज कहा ही था कि क्रिकेट में से खेल अब लुप्‍त होता जा रहा है। आज ही T-20 का विश्‍वकप शुरू हुआ है और क्‍या कार्यक्रम है हुजूर- हमें क्रिकेट तो नहीं लगा एक मनोरंजन का वैराइटी प्रोग्राम भर लगा। अपने टीवी से कुछ तस्‍वीरें कैप्‍चर की हैं देखें- भला जेन्‍टलमैनों के 'खेल' ऐसे होते हैं क्‍या -





वैसे कुछ क्रिकेटीय क्षण भी थे। जैसे गेल का शतक-



कुल मिलाकर हमें तो लगता है कि मीडिया के लिए मनोरंजन का तमाशा तैयार करने के लिए खेल हो रहा था। पता नहीं अब प्रभाष जोशी क्‍या लिखेंगे ?

मार्क्‍स - पराजित शत्रु के लिए खिन्‍न मन

कॉलेज स्‍टाफ रूम में अक्‍सर यह मौका मिलता है कि दूसरे विषयों के शिक्षकों से उनके विषय में हो रहे हालिया बदलावों पर चर्चा हो सके। अक्‍सर साफ तौर पर एक कॉमन ट्रेंड दिखाई देता है कि सारी उच्‍च शिक्षा में बदलाव हो रहा है इसकी दिशा सभी विषयों में एक ही है- गहराई से उथलेपन की तरफ। मसलन साहित्‍य के पाठ्यक्रमों में साहित्‍य कम हो गया है और मीडिया, अनुवाद जैसे तत्‍व बढ़ रहे हैं। इसलिए जब आज अपनी एक अर्थशास्‍त्र की साथी शिक्षिका से चर्चा हो रही थी तो मैं इसे खासतौर पर जानने का इच्‍छुक था कि उनके विषय में क्‍या हो रहा है- ऐसा इसलिए कि बाकी विषयों में हो रहे बदलाव खुद अर्थशास्‍त्र के ही दबाव में हो रहे बदलाव हैं  फिर अर्थशास्‍त्र में तो ये बदलाव और साफ नंगई के साथ आ रहे होंगे। यह भी ध्‍यान रखने लायक बात है उच्‍च शिक्षा के पाठ्यक्रम विचारधाराओं की लड़ाई अखाड़े रहे हैं क्योंकि भविष्‍य को प्रभावित करने का सबसे जरूरी मोर्चा इन युवाओं को ही प्रभावित करना है।

तो मैनें पूछा कि आजकल मार्क्‍स कैसे पढ़ा (पाती) हैं आप ? उन्‍होंने रहसयमयी मुस्‍कान से देखा और बोलीं- पढ़ाना ही नहीं पढ़ता। ओह.. क्‍या पाठ्यक्रम में है ही नहीं अब ? हम न जाने क्‍यों चिंतित हो गए- बाद में हमें अपनी चिंता बड़ी चिंताजनक लगी- विश्‍वविद्यालय की पढ़ाई के दौरान हमने बहुत सी ऊर्जा मार्क्‍सवादियों से बहसियाने में जाया की है-  हमेशा उनसे लड़ते रहे- इसलिए अब यदि मार्क्‍स के नामलेवा नहीं बचें हैं तो हमें खुश होना चाहिए था पर नहीं- अंदर खाते हम इस विचारधारा के कई तत्‍वों के दिली प्रशंसक रहे हैं और इस बात के भी कि बौद्धिक जमात में मार्क्‍सवादियों की उपस्थिति यह सुनिश्चित करती थी कि मुद्दे पर आलोचनात्‍मक दृष्टि से विचार हो सकेगा, इस विचारधारा में लाख कमियॉं हो पर  इसके मानने वालों में विमर्श की एक ट्रेनिंग दिखाई देती रही है। कम से कम हमारे विश्‍वविद्यालय में तो ऐसा ही है।

साथी शिक्षिका ने बताया कि अभी भी मार्क्‍सवाद को पढ़ाया जाता है पर केवल आनर्स में एक पर्चे में, वो भी पिछले साल तक 100 अंक का था अब 50 का हो गया है, उसमें भी विचार इस धारा की कमियों पर अधिक होता है। बाकी विद्यार्थियों को मार्क्‍सवाद का उल्‍लेख एक असफल प्रणाली की तरह किया जाता है। इसके अतिरिक्‍त ये भी कि अब इसकी ही वजह से विद्यार्थियों से आलोचनात्‍मक विश्‍लेषण के सवाल पूछे जाने की बजाय तथ्‍यात्‍मक सवाल पूछे जाते हैं। एक राजनैतिक व्‍यवस्‍था के तौर पर भले ही अब भी कहीं कहीं वामपंथी दिख जाएं पर एक आर्थिक चिंतन के रूप में तो वह पूरी तरह परास्‍त दिखता है खुद चीन में तो खूब नंगेपन के साथ। और सब से बड़ी बात ये कि दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय जैसे संस्‍थानों के पाठ्यक्रमों के निर्धारण को बहुत सी देशी विदेशी ताकतें प्रभावित करती हैं (अर्थशास्‍त्र का पाठ्यक्रम दिल्‍ली स्‍कूल ऑफ इकोनिमिक्‍स  द्वारा तैयार होता है जहॉं का शायद ही कोई शिक्षक होगा जो अमरीकी फैलोशिपों को भोक्‍‍ता न हो)   हम अगली कक्षा के लिए उठें उससे पहले उन्‍होंने मानों सार सामने रखा- पहले मार्क्‍सवाद एक वैकल्पिक व्‍यवस्‍था थी अब केवल एक क्‍लास ऐसाइनमेंट का शीर्षक है।

Friday, September 07, 2007

उनकी विश्‍वसनीयता में सेंध- हमारी ओर से शुद्ध खेद खेद खेद

हमने उमा खुराना प्रकरण पर एक पूरी पोस्‍ट लिखी थी, अब कहानी की असलियत सामने आ गई है- उमा शिक्षिका हैं और हमने राय व्‍यक्‍त की थी कि शिक्षक होने के नाते हम उस शर्मिंदगी में साझा हैं जो उमा के 'आचरण' से उपजती है। तीन-चार दिनों में मामला पलट गया है- हम अपनी गलती को ओन करते हैं तथा इस विषय में अपनी क्षमा याचना व्‍यक्‍त करते हैं- उस पोस्‍ट में कम से कम कुछ वाक्‍य तो ऐसे हैं ही जो उस शिक्षिका को दोषी मान लेने की ध्‍‍वनि लिए हैं।


हम गुमराह हुए- बाकायदा किए गए। पत्रकार बिरादरी ने किए (चलिए बिरादरी नहीं कहते....कुछ पत्रकारों ने किए) सिर्फ हम ही नहीं हुए पूरा देश हुआ। चंद पत्रकारों ने कहा कि शिक्षक इतने पतित हो गए हैं कि धंधा करने लगे हैं- हम झट आत्‍मालोचना के मोड में गए-



जनता में गुस्‍सा है, सरकार में भी और कानून तो जो और जैसे करेगा वो करेगा ही (दिल्‍ली में इम्‍मोरल ट्रेफिकिंग के केसों में कन्विक्‍शन की दर बहुत ही कम है) पर हमें सबसे खतनाक वह चुप्‍पी लगती है जो इस तरह की घटनाओं के बाद शिक्षक समुदाय में आंतरिक रूप से देखने को मिलती है



अब सवाल यह है कि सब जानते हैं कि एक पत्रकार (चैनलों की कार्यप्रणाली जानने वाले मानेंगे कि ये स्टिंग एक पत्रकार भर की हरकत नहीं ही होगी) ने टीआरपी के लिए एक और साथी पत्रकार को वेश्‍या के रूप में अभिनय करने के लिए कहा और नकली स्टिंग में उस अध्‍यापिका को फंसाया गया। पत्रकार मित्र कहें कि इसे क्‍या कहें। उमा के कपड़े फाड़े गए- हम जैसे गैर जिम्‍मेदार लोगों की ही हरकत थी। पर पत्रकारिता की कोई जिम्‍मेदारी बनती है कि नहीं। टी आर पी के लिए पत्रकार अपनी साथी को ही वेश्‍या बना डालेंगे- ये भूख फिर अब कब थमेगी।


हमें लगता है कि स्‍त्री के सम्‍मान का सवाल, छात्र-शिक्षक संबंधों के विश्‍वास हनन का सवाल, पत्रकारिता के मूल्‍यों का सवाल और संभवत चिट्ठाकारिता के दायित्‍व का सवाल इसमें शामिल है। अपने तईं हम पुन: स्‍वीकार करते हैं और पूरी शर्मिंदगी से स्‍वीकार करते हैं कि हम मीडिया रिपोर्टों पर विश्‍वास करने की गलती कर बैठे हमें खेद है।


एक नुमाइशी जुगलबंदी- गीताप्रेस गोरखपुर और विल्‍स इंडिया फैशनवीक

दिल्‍ली आसानी से देश की प्रकाशन राजधानी भी है इसलिए भले ही 'दिल्‍ली पुस्‍तक मेला' अपने आकारादि में विश्‍व पुस्‍तक मेले (यह भी दिल्‍ली में ही होता है) के सामने कहीं न ठहरे तो भी यह ऐसी नुमाइश तो होती ही है कि हम इसके हर बार दर्शक ठहरते हैं। इस बार भी गए। प्रगति मैदान के हाल संख्‍या 9-10-11-12 में जमाए गए जमावड़े़ में कई प्रकाशक नदारद थे तो कुछके स्‍टाल व प्रतिभागिता का स्‍तर काफी कम था। यहॉं तक कि अकादमियॉं आदि भी कम संख्‍या में थीं। पर इसके बावजूद प्रबंध अच्‍छा है जो प्रकाशक हैं उनके पास भी इतना माल तो है ही कि उसके बहुत ही थेड़े अंश को खरीद पाते हैं बहुत सा टालना पड़ता है मन मसोसना पड़ता है खासकर अंगेजी की डालर पाउंड वाली किताबे अपनी पहुँच से बाहर ही लगी- पुस्‍तकालय के ही भरोसे पढ़ पाएंगे। हॉं हिंदी की किताबे अभी भी जम के खरीदी जा सकती हैं। देवनागरी में उर्दू साहित्‍य अब खूब दिख रहा है।

कौन थे दर्शक- घर-परिवार वाले लोग सपरिवार, और थे विद्यार्थी, अध्‍यापक, शोधार्थी सब जाने पहचाने से चेहरे- एक तसल्‍ली के भाव से। किताब किताब पर ठहरकर खिसकते...तसल्‍ली का दुर्लभ सा होता भाव पसरा था।

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अगर आप हॉल 9 से घुसेंगे और किताबों की सारी नुमाइश के बाद निकलेंगे तो आपका निकलना होगा हॉल 12 से और बाहर आते ही उई बाबा रे.... 

नहीं यूँ तो हर एयर कंडीशंड क्षेत्र से बाहर निकलते ही एक गर्म भभका आकर टकराता ही है चेहरे से पर यहॉं मामला दूसरा है। हॉल 7-8-9 हॉल इस हॉल से सटे हॉल हैं और यही है इस साल के विल्‍स इंडिया फैशन वीक  का स्‍थान।



तमाम ज्ञान बघारें, स्‍त्री विमर्श पढें या पढ़ाएं यानि कितने ही चेहरे ओढ़ लें एक बनैला आदमी छिपा ही होता है। किताबों का झोला टांगे बाहर आएं और (शायद समय ऐसा था' शाम के छ: होंगे) अचानक एक के बाद एक मॉडल और डिजाइनर आदि लोग चमचमाते चेहरों और दीप्‍त न जाने किस बात के आत्‍मविश्‍वास के साथ इस रहस्‍यलोक में गुम होते जाएं तो....हम तो अकबका गए।

दो इतनी भिन्‍न दुनिया- किताब की दुनिया वालों को तो पता है कि वो पेज थ्री वाली दुनिया है पर उससे उनका कोई वास्‍ता नहीं। उस फैशन वीक पीढ़ी को तो शायद पता ही नहीं कि ये किताब वाली पीढ़ी का वजूद भी है। पर देखिए मजा कि दोनों को एक दूसरे का पड़ोसी बना दिया। आप दोस्‍त बदलें, दुश्‍मन बदलें पर पड़ोसी नहीं बदल सकते। पुस्‍तक मेले से निकले कुछ लोग जो किन्‍हीं हसरतों से फैशनवीक मंडली की तरफ  देख रहे थे और उन्‍हें बेहद हिकारत से देखा जा रहा था...खूब जुगलबंदी थी। स्‍त्री विमर्श की पैरोकार मित्र ने मुस्‍कराकर हमारी अकबकाहट को देखा और गीताप्रस गोरखपुर से निकली स्‍त्री नैतिकता पर लिखी किताब दिखाते हुए उसकी मूर्खतापूर्ण शिक्षाओं पर अपनी राय देने लगीं।

 

Tuesday, September 04, 2007

काले कन्‍हैया के गोकुल में क्‍यों चाहिए गोरी मेम

भारतीय सुंदरी शिल्‍पा शेट्टी नस्‍लवादी टिप्‍पणी से आहत हुई थी और फिर पौंड्स की बरसात और नस्‍लविरोधी चुंबन से उसका गौरव लौट पाया। पर क्‍या भारतीय खुद एक नस्‍लवादी कौम हैं ?  

जी नहीं मैं कम से कम अभी दलित उत्‍पीड़न की तरफ इशारा करते हुए नहीं कह रहा हूँ वरन एकदम पारिभाषिक संदर्भ में नस्‍लवाद की बात कर हा हूँ यानि एक नस्‍ल या चमड़ी के रंग के आधार पर बेहतरी कमतरी की मानसिकता का सवाल। नस्‍लवाद के सवाल का उपनिवेशवाद और उससे भी पहले गुलामी की प्रथा से गहरा लेना है- इसी क्रम में मालिकों की ऐथिनीसिटी को गुलामों की ऐथिनीसिटी से बेहतर समझा जाने लगा और यह प्रवृत्ति पहले तो बढ़ती गई और फिर बाद में इस मानसिकता का निर्यात अपने उपनिवेशों को  कर दिया गया। इंग्‍लैंड इस नस्‍लवाद की मातृभूमि है और अमरीकी नस्‍लवाद की जननी भी है। लेकिन क्‍या भारत जैसे देश के नागरिक जो खुद इस नस्‍लवाद के शिकार रहे हैं वे क्‍या खुद इसी नस्‍लवादी सोच के शिकार हैं या हो सकते हैं ?

हमारी एक मित्र इस वर्ष की कॉमनवैल्‍थ फैलो चुनी गई हैं और इस फैलोशिप के तहत इंग्‍लैंड रवाना हो रही हैं इस तैयारी के क्रम में ब्रिटिश काउंसिल ने कई ब्रीफिंग सैशन आयोजित किए  और इन्‍हीं में उन्‍हें बताया गया कि यदि आपके खिलाफ कोई नस्‍लवादी भेदभव हो तो क्‍या किया जाना चाहिए... यहॉं तक तो ठीक। पर साथ यह भी बताया कि खुद भारतीय ( इनमें पाकिस्‍तानी व बांग्‍लादेशी भी गिने जाएं) इंग्‍लैंड की कुछ सबसे अधिक नस्‍लवादी कौमों में हैं। आगे उदाहरण देते हुए बताया गया कि किस प्रकार इंग्लैंड के विश्‍वविद्यालयों के कैंपस में गोरे लड़के और लड़कियॉं आपको भारतीय, ईस्‍ट एशियन, अरब, अफ्रीकी आदि लोगों के साथ जोड़े बनाते दिखेंगे पर कभी भारतीयों के जोड़े अफ्रीकी लड़के-लड़कियों के साथ बनते नहीं दिखेंगे। थोड़ा सोचने पर बात एकदम सही लगती है कोई भी न्‍यायप्रिय, समतावादी, देशप्रेमी  आदि आदि एनआरआई विदेश से गोरी मेम तो हो सकता है ले आए लेकिन कोई अफ्रीकी लड़की उसे पसंद नहीं आ पाती। अब नहीं आती तो नहीं आती कोई जबरिया तो इश्‍क करेगा नहीं पर सवाल यह है कि ऐसा होता क्‍यों है।

जवाब ढूंढना कोई बहुत मुश्किल नहीं है। अखबार उठाएं और वैवाहिक विज्ञापनों पर नजर दौड़ाएं फेयर-गोरी चिट्टी बहु चाहिए और अगर हो सके तो लड़की वाले भी गोरे दूल्‍हे को ही वरीयता देंगे। ये अपने आप में नस्‍लवाद न मानकर मेटिंग प्रेफरेंस  कह दिया जा सकता है पर हर कोई जानता है कि गोरे रंग को बेहतर समझे जाने की प्रक्रिया का स्रोत उपनिवेशवाद और नस्‍लवाद में ही है। केन्‍या और नाईजीरियाई विद्यार्थियों को लेकर दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय के कैंपस में कैसे कैसे पूर्वाग्रह होते हैं इससे एक विद्यार्थी और अध्‍‍यापक होने के नाते हम खूब परिचित हैं। यह मानसिकता ऐसी छोटी मोटी बीमारी नहीं है कि चार एनआरआई बैठक कर या संकल्‍प कर इसे दूर कर सकें, पहले तो इस स्वीकार का साहस ही दिखाना पड़ेगा कि यदि भारतीय कभी कभी नस्‍लवाद का शिकार होते हैं तो वे खुद भी अक्‍सर नस्‍लवादी व्‍यवहार करते भी हैं और फिर इसकी जड़ तक पहुँचने का भी साहस दिखाना पड़ेगा।

Monday, September 03, 2007

मुँह चुराना बेकार है...सच है कि उमा खुराना हमारे ही बीच से है

हम दु:खी थे कि बाय डिफाल्‍ट इज्‍जतदार शिक्षक वर्ग से हैं इसलिए सड़क चलते भी कभी कभी सतर्क रहना पड़ता है। पर दिल्‍ली की ही शिक्षक बिरादरी से एक शिक्षिका का आस्‍था ऐसे किसी विचार में नहीं निकली। उमा खुराना नाम की यह गणित शिक्षिका अपनी विद्यार्थियों को डरा ध‍मकाकर जिस्‍मफरोशी में धकेलती थी।  तुर्कमान गेट के जिस स्‍कूल की इस गणित शिक्षिका की हरकतें पूरे मीडिया पर दिखाई गईं वह हमारे कॉलेज से फर्लांग भर से भी कम दूरी पर है- स्‍कूल हज मंजिल के सामने है और इलाका इतना संवेदनशील है कि गाय गोबर कर दे तो घटना सांप्रदायिक मान ली जाए,  इस घटना में इस स्‍कूल की किसी लड़की का नाम नहीं है पर आस पास के हल्‍ले की शुरूआत इसी आशंका से हुई थी कि यह महिला इस स्‍कूल की बच्चियों को वेश्‍यावृत्ति में धकेल रही थी- मामले की जॉंच जारी है पर इतना तय है कि ये हमारी जो शिक्षक बिरादरी है जिसके हम भी बाकायदा हिस्‍से हैं यह पिछले कुछ अरसे से खूब धतकरम करने पर उतारू है। पहले भी दिल्‍ली के सरकारी स्‍कूल का का एक हेडमास्‍टर इसी तरह के कर्म में लिप्‍त पाया गया था।

बाहर बहुत कुछ कहा जा रहा है, उस पर क्‍या कहें। लोगों का कहना है कि ये शिक्षक-छात्र संबंधों के ताबूत की अ‍ाखिरी कील है।  जनता में गुस्‍सा है, सरकार में भी और कानून तो जो और जैसे करेगा वो करेगा ही (दिल्‍ली में इम्‍मोरल ट्रेफिकिंग के केसों में कन्विक्‍शन की दर बहुत ही कम है) पर हमें सबसे खतनाक वह चुप्‍पी लगती है जो इस तरह की घटनाओं के बाद शिक्षक समुदाय में आंतरिक रूप से देखने को मिलती है। ये ऑंख चुराने की प्रवृत्ति है। जब हेडमास्‍टर अपने स्‍कूल में ही व्‍यभिचार में लिप्‍त पाया गया था तब हम एक स्‍कूल के अध्‍यापक थे- अगले दिन स्‍कूल के अध्‍यापक स्टाफ रूम में इस घटना पर किसी चर्चा से बचने की कोशिश में दिखे और अब यही प्रवृत्ति कॉलेज के स्‍टाफ रूम में भी थी। यह सही है कि विश्‍वविद्यालय का प्रशासन इस तरह की घटनाओं के लेकर अधिक कड़ा रवैया अपनाता है- बाकायदा एक ढॉंचा है जो इस तरह की शिकायतों को देखता है- पिछले ही दिनों दो प्रोफेसरों को बर्खास्‍त करने का निर्णय लिया गया तथा एक के खिलाफ कार्यवाही  अभी जारी है। पर फिर भी जिस तरह का 'ज़ीरो टाल्‍रेंस'    होना चाहिए वह अभी दिखता नहीं।