Friday, March 31, 2006

कहा मानसर चाह सो पाई

फिलहाल काफी पंकमय अनुभव कर रहा हूँ। लेक्‍चररी की एक छोटी सी लड़ाई लड़ रहा था- हार गया। पदमावती का रूप पारस था जो छूता सोना हो जाता और जैसा कि लाल्‍टू अन्‍यत्र संकेत करते हैं इस विश्‍वविद्यालयी दुनिया में काफी कीचड़ भरा है। इसे भी जो छूता है पंकमयी हो जाता है। देखते हैं शायद इस ब्‍लॉग सरोवर के स्‍पर्श से विरेचन (कैथार्सिस) हो जाए। आमीन

1 comment:

रवि रतलामी said...

आपका कहना सही है...

विश्वविद्यालयीन दुनिया में कीचड़ भरा है... और वह कीचड़ वनस्पति का नहीं है...

वह कीचड़ सड़ांध मारता मानव (विद्यालय के ही) के मल-मूत्रों के विसर्जन का ही है... कीड़ों से लबलबाता हुआ...

अधिकार से इस लिए कह रहा हूँ कि मेरी पत्नी भी विश्वविद्यालय में पढ़ाती हैं, और उन्होंने जो देखा भुगता है, वह थोड़ा तो मुझे भी नज़र आता है...