Wednesday, December 13, 2006

2006 :पढ़े-लिखे का लेखा-जोखा

2006 बस फिसल सा ही गया है। प्रत्‍यक्षा ने एक चिथड़ा सुख का जिक्र किया तो इच्‍छा हुई कि जरा मुड़. के देखा जाए कि साल भर में की हमारी कमाई क्‍या रही। यानि इस साल कौन-2 सी किताबें पढ.ने का अवसर मिला, मतलब उन पाठ्यपुस्‍तकों के अलावा जो पढ़ाने भर के लिए पढ़ना जरूरी था। अपने कारण हैं मेरे पास (शायद बहाने कहना चाहिए) पर ये सूची बहुत लम्‍बी नहीं है। जो पुस्‍तकें बिल्‍कुल पहली बार पढ़ीं वे रहीं-

संवत्‍सर : ये अज्ञेय का कम प्रसिद्ध विचार गद्य है। समय (कहना चाहिए काल) पर सूक्ष्‍म दार्शनिक चिंतन है। दिक् व काल मेरी रुचि का क्षेत्र है इसलिए इस अपेक्षाकृत दुर्लभ रचना को पढ़ना आनंददायी घटना थी।

अंतिम अरण्‍य : निर्मल का उपन्‍यास।

मेरा नन्‍हा भारत : मनोज दास की रचना My little India का नेशनल बुक ट्रस्‍ट से प्रकाशित अनुवाद एक दार्शनिक जब भ्रमण पर निकले तो ये अनुभव पर्यटन से कहीं भिन्‍न होता है और नितांत निजी नहीं वरन् जातीय होता है।

The City of Djinns : William Dellrymple दिल्‍ली का संस्‍मरणात्‍मक इतिहास

गदर 1857 (ऑंखों देखा हाल) : मोइनुद्दीन हसन। मोइनुदीन हसन कोई इतिहासकार नहीं ये महाशय तो इस संग्राम के दौरान दिल्‍ली के एक थानेदार थे और जाहिर है विद्रोह के केंद्र में थे। संयोग रहा कि the city of.. तथा इस पुस्‍तक को मैने क्रम से पढ़ा क्‍योंकि ये एक दूसरे के रिक्‍त स्‍थानों को भरती हुई पुस्‍तकें हैं।

मई अड़सठ, पेरिस : लाल बहादुर वर्मा का सद्य प्रकाशित उपन्‍यास।

The Road Less Travelled :Scot M Peck बेस्‍टसेलर प्रजाति की रचना

पीली छतरी वाली लड़की (उदय प्रकाश) - 'अमॉं हिंदी की खाते हो और अभी तक ये भी नहीं पढ़ा....' के आरोप से मुक्ति के लिए पढ़ी और कोई अफसोस नहीं हुआ।

त्रिशंकु : मन्‍नू भंडारी की कहानियॉं

दो पंक्तियों के बीच (राजेश जोशी) पूरे साल में पूरा कविता संग्रह बस यही पढ़ा है। हॉं छुटपुट कविताऍं जरूर पढ़ने का अवसर मिला।

साहित्‍य और स्‍वतंत्रता : प्रश्‍न प्रतिप्रश्‍न (देवेंद्र इस्‍सर) अच्‍छी साहित्‍यालोचना

कुछ किताबें पढ़ाने के लिए या अन्‍य कारणों से फिर से पढ़ीं मसलन चीड़ों पर चॉंदनी, नई सदी और साहित्‍य, कर्मभूमि, सूरज का सातवॉं घोड़ा, शब्‍द और स्‍मृति।
इच्‍छा है कि पढ़ी पुस्‍तकों पर कुछ विस्‍तार से लिखूँ पर पता नहीं हो पाता है कि नहीं पर......

Monday, October 23, 2006

जिन्‍नात का शहर - दिल्‍ली

विलियम डेलरिम्‍पल की दिल्‍ली पर संस्‍मरणात्‍मक पुस्‍तक "City of Djinns- A year in delhi" जो मेरी नजर में इतिहास की एक वाकई प्रामाणिक पुस्‍तक है को हाल ही में समाप्‍त किया है। अपने शहर पर किसी 'अन्‍य' की प्रतिक्रिया की मुझे बहुत अहम जान पड्ती है। इस पर लाल्‍टू से पहले भी एक बार ब्‍लॉगिया विमर्श हो चुका है। दिल्‍ली से यह जुड़ाव प्रत्‍यक्षानुमा सुखद स्‍मृतिपुंज भर नहीं है छलली की मेरी स्‍मृति में (और वर्तमान में भी) बदबूदार बस्तियॉं, गरीबी, असुविधाएं, कंक्रीट सभी है पर हाँ इस शहर से लगाव है अब यह लगाव और यह शहर एक अकादमिक दायित्‍व भी बन गया है और ज़ाहिर है मैं इस बात से खुश हूँ।

Thursday, September 07, 2006

अन्‍या से अनन्‍या

प्रभा खेतान की आत्‍मकथा के अंश हमारे युग के खलनायक (बकौल साधना अग्रवाल) राजेंद्र यादव की हँस में नियमित प्रकाशित हुए हैं और हिंदी समाज में लगातार उथल पुथल पैदा कर रहे हैं। अब एक सुस्‍थापित सुसंपन्‍न लेखिका साफ साफ बताए कि वह एक रखैल है और क्‍यों है तो द्विवेदी युगीन चेतना वालों के लिए अपच होना स्‍वाभाविक है। जी प्रभा रखैल हैं किसी पद्मश्री ऑंखों के डाक्‍टर की (अपनी कतई इच्‍छा नहीं कि जानें कि ये डाक्‍टर कौन हैं भला) और यह घोषणा आत्‍मकभा में है किसी कहानी में नहीं। अपनी टिप्‍पणी क्‍या हो ? अभी तो कह सकता हूँ कि -
मेरे हृदय में
प्रसन्‍न चित्‍त एक मूर्ख बैठा है
जो मत्‍त हुआ जाता है
कि
जगत स्‍वायत्‍त हुआ जाता है (मुक्तिबोध)

Sunday, September 03, 2006

गोदना, बीयर और मुर्ग-मक्‍खनी: बोल मेरी हिंदी कितना पानी

हॉं मैं शामिल था और निरंतर केंद्र से परिधि की ओर आ-जा रहा था। जी, जनाब दिल्‍ली ब्‍लॉगिया पंचैट हुई, बाकायदा हुई और अच्‍छी हुई। दरबान के 'यस सर' में 'यस' की आपत्तिजनक दीर्घता 'सर' की विनम्रता से कहीं अधिक हावी थी। या शायद वह वैसे ही थी मैनें ही ज्‍यादा पढ़ा। खैर कालक्रम से मैं चौथा ब्‍लॉगर था। (सु)रुचिपूर्ण तैयार होकर आई तीन महिला ब्‍लॉगरों के बाद पहुँचा मैं बेतरतीब पुरुष (खासतौर पर ब्‍लो और
स्‍काउट को यौवनोचित निराशा हुई होगी ......... अब क्‍या करें हम तो ऐसे ही हैं)
एक एक कर

वरुण

शिवम

प्रसूंक

अरुणि

महाराजाधिराज



भी पहुँचे और पंचैट बाकायदा शुरु हुई। कुल हाजिरी नौ, लिंग अनुपात छ: पर तीन का था, गोदना (यानि टैटू) अनुपात भी छ: पर तीन का। मेजबानी व्‍यवस्‍था रही रिवर और
स्‍काउट की

ब्‍लॉगर समुदाय की खास बात रुचिगत वैविध्‍य है। इस नौ की मंडली में दो टेकीज़ ( यानि साफ्टवेयर पारंगत) थे तीन विद्यार्थी, हम दो (यानि मैं ओर रिवर) विश्‍वविद्यालय अध्‍यापक थे, दो पत्रकार थे और अन्‍य 'अन्‍य' थे। जाहिर है चर्चा के लिए अनंत विषयों की संभावना थी आर हुई भी- पत्रकारिता की दलदल को नापा गया, अध्‍यापिकाओं की उम्र को आंका गया, अनुपस्थित ब्‍लॉगरों की निंदा का सुख लिया गया । गोदने पर विस्‍तृत चर्चा हुई- गोदना संप्रदाय से तीन जीव थे, गोदना प्रशंसक एक और गोदना विरोधी एक - शेष तटस्‍थ । निष्‍कर्ष रहा- देह मेरी मर्जी मेरी। ति‍तलियॉं थीं, डेविड का सितारा था और अमूर्तन भी था। रिवर की सिफारिश वाला बटर चिकन  तो किसी को न मिला पर मिली तीन चार चरण बीयर, पनीर टिक्‍का, दाल रोटी और ढेर सारी मूंगफली और बाद में शौचालय शिकार (Loo Hunting) को विवश करती कॉफी डे की कॉफी। अच्‍छा समय रहा। और हॉं । बटर चिकन इसलिए नहीं मिला कि मीनू में खोजने वालों को उम्‍मीद न थी कि बटर चिकन को मुर्ग मक्‍खनी भी कहा जा सकता है।

Friday, September 01, 2006

बीयर कबाब में हिंदी हड्डी

रिवर ने सुझाया और कई ने हाथों हाथ लिया कि दिल्‍ली में एक ब्‍लॉगर मीट हो ( हिंदी में कहें तो ब्‍लॉगिया पंचैट) और कल सब मतलब कई लोग मिल रहे हैं। खर्चा खाना पीना (रिवर का सुझाव है बीयर और बटर चिकन) अपना अपना। बातचीत कविता पर और अपना-आपकी।
स्‍थान कैफे-100, कनॉट प्‍लेस समय - 2-9-2006 , 1 बजे
हिंदी ब्‍लॉग जगत से तो अकेला ही होउंगा जब तक कि आप में से कोई आने का इरादा न बना ले। रिवर के ब्‍लॉग पर कन्‍फर्म करें।

Tuesday, August 29, 2006

धराशाही खिड़की के शिकार

मित्रो,

वापस आ गया हूँ। दरअसल विंडोज क्रैश हो गया था और रिइंस्‍टाल करने पर बड़ी नाजायज सा मॉंग कर रहा था हिंदी शुरू करने के लिए (मॉंग रहा था असली विंडोज सी डी) खैर अब जुगाड़ हो गया है। उम्‍मीद की जा सकती है डाक आती रहेगी।

Friday, March 31, 2006

कहा मानसर चाह सो पाई

फिलहाल काफी पंकमय अनुभव कर रहा हूँ। लेक्‍चररी की एक छोटी सी लड़ाई लड़ रहा था- हार गया। पदमावती का रूप पारस था जो छूता सोना हो जाता और जैसा कि लाल्‍टू अन्‍यत्र संकेत करते हैं इस विश्‍वविद्यालयी दुनिया में काफी कीचड़ भरा है। इसे भी जो छूता है पंकमयी हो जाता है। देखते हैं शायद इस ब्‍लॉग सरोवर के स्‍पर्श से विरेचन (कैथार्सिस) हो जाए। आमीन

Saturday, February 25, 2006

कामरेड की मौत पर एक बहस

वह
पलक झपकाने भर तक को तैयार नहीं
उत्‍साह से कहती हैं
उसकी ऑंखें
देखना जल्‍द ही सवेरा होगा

मैं मुस्‍का देता हूँ हौले से बस।
होती हो सुबह- हो जाए
मुझे गुरेज नहीं
पर तुम सा यकीन नहीं मुझे
सवेरे के उजाले में

सच मानों मैं तो डरता हूँ
उस बहस से- जो तब होगी
जब अँधेरे में अपलक ताकने से
पथरा जाएंगी तुम्‍हारी ऑंखें
साथी कहेंगे- कामरेड
अँधेरे ने एक और बलि ले ली
मैं कहूँगा
ये हत्‍या उजाले ने की

Tuesday, February 21, 2006

सावधान। अर्थ हड़ताल पर है

शब्‍द की बेगारी करते करते अर्थ बूढ़ा हो चला था। एक शाम एक शब्‍दकोश में बैठा वह विचार कर रहा था कि आखिर उसने अपने जीवन में पाया क्‍या। शुद्ध बेगारी। न वेतन न भत्‍ता। अगर देखा जाए तो शब्‍द जो कुछ भी करता है उसमें असली कमाल तो अर्थ का ही होता है पर चमत्‍कार माना जाता हे शब्‍द का। अर्थ को कोई नहीं पूछता- कतई नहीं। ये तो साफ साफ गुलाम प्रथा है, पूरा जीवन झौंक दिया , न कोई पेंशन न सम्‍मान। अर्थ को लगा कोई संघर्ष शुरू करना जरूरी है।

उसने तय किया सवेरे वह हड़ताल करेगा- शब्‍द के विरुद्ध अर्थ की हड़ताल। उसे हैरानी हुई- ये ख्‍याल उसके दिमाग में अब तक क्‍यों नहीं आया। वह तो सारी दुनिया का चक्‍का जाम कर सकता है। सुबह जब लोग बोलेंगें तो इसका कोई अर्थ नहीं होगा। अखबार, टीवी, रेडियो, नेताओं के भाषण, मुहल्‍ले की औरतों की बातचीत, राजनयिकों के वार्तालाप.... अरे मेरी सत्‍ता तो सर्वव्‍यापक है। बेचारे लेखक, कवि...ये तो मारे ही जाएंगे। अर्थ ठठाकर हॅंस पड़ा। शब्‍दकोश को मुखातिब होकर उसने कहा- आज आज की बात है देखना कल से सिर्फ मेरी ही चर्चा होगी, तुम्‍हारे हर पृष्‍ठ पर शब्‍द तो होंगे उसके आगे के अर्थ गायब हो जाऐंगे...देखना।

अगले दिन सुबह अर्थ वाकई हड़ताल पर चला गया। सारे शब्‍दों से अर्थ लुप्‍त हो गया। अर्थ अपनी हउ़ताल का प्रभाव जानने को आतुर था- वह सड़क पर निकल गया- किंतु आश्‍चर्य, सड़कों पर सब सामान्‍य था। हड़ताल जैसा कुछ नहीं। बसें चल रही थीं, पुलिस का भी कोई बन्‍दोबस्‍त नहीं, अखबार छपे थे, कविताएं सुनाई गई थीं, उपनर चर्चाएं भी हुई, विदेश यात्राएं, सेमिनार-गोष्ठियॉं सब हो रहा था। लोगों की बातचीत में अर्थ-हड़ताल का कोई जिक्र नहीं था। सब सामान्‍य- जड़ सामान्‍य।

अर्थ क्षुब्‍ध था, उसने अगले दिन का अखबार छान डाला उसके बारे में कोई समाचार नहीं था। अखबार शब्‍दों से लदे-फदे थे। गोष्ठियॉं, अन्‍य हड़तालों, खून-खराबे सभी की चर्चा थी... बस उसकी हड़ताल पर ही किसी का ध्‍यान नहीं गया था। तभी उसकी नजर चौथे पेज की चार पंक्तियों की खबर पर गई। विश्‍वविद्यालय के भाषा विज्ञान विभाग के कुछ शोधार्थियों ने शिकायत की थी कि आज शब्‍दकोश में से एक शब्‍द रातों-रात न जाने कैसे गायब हो गया। यह शब्‍द हिंदी भाषा के अक्षरों 'अ', 'र्' तथा 'थ' से बना करता था।

Tuesday, February 07, 2006

दिल्‍ली आखिर दिल्‍ली ठहरी

गत सत्र मैं सराए में एक फैलो था (यह वही संस्‍था हैं जहॉं से योगेन्‍द्र यादव जी जिनका कुर्ता लाल्‍टू के ब्‍लॉग पर लिंकित है, संबद्ध्‍ हैं ) मैने इस शहर दिल्‍ली पर शोध किया था और इसे जानने की कोशिश की थी दावा नहीं कर सकता कि समझ ही गया था पर जितना समझा था उस लिहाज से कह सकता हँ कि दिल्‍ली पर बेदिली के आरोप कुछ ज्‍यादा ही बेदिली से लगाए जाते हैं लाल्‍टू के पास तो खैर वजह थी और बहुत से शहरों का अनुभव भी (दुनिया जहान के शहरों की म्‍यूनिसिपैलिटी का पानी पिए हैं कई बार तो डर लगता है कि हमें कुऍं का मेंढक कह झिड़क न दें)। पर वैसे भी दिल्‍ली के खुद के लोग भी गर्व से दिल्‍ली को बेमुरव्‍वती का शहर मानते बताते हैं। अपन तो इसी शहर की एक बस्‍ती में पैदा हुए और यहीं पले बड़े हुए दोस्‍त बनाए भी। और गंवाए भी और किसी को हैरानी हो तो हो पर हमें यह शहर पसंद भी है। वैसे जो दोस्‍त अभी तक बने हुए हैं उनका कहना है कि इस शहर ने मसिजीवी के साथ नाइंसाफी की है पर खुद मुझे ऐसा कभी नहीं लगा।

इसलिए हमारे लिए यह शहर मुकम्‍मल शख्सियत रखता है इतनी कि शहर मात्र यानि किसी भी शहर में इसे शामिल न करें यह जिद पालतें हैं इसे लेकर।

तो वाक्‍य बनेगा दिल्‍ली आखिर दिल्‍ली ठहरी

Wednesday, January 18, 2006

रिवर के स्‍टैटकाउंटर और अरुंधति का पुरस्‍कार त्‍याग

अरुधंति राय अंग्रेजी में लिखती हैं और ">रिवर अंग्रेजी पढ़ाती हैं। अरुंधति को या रिवर से पढ़ने का (सु)अवसर मुझे प्राप्‍त नहीं हुआ है। इसलिए आगे की बात पर हावी हैं मेरे पूर्वग्रह और बस पूर्वग्रह। ">लाल्‍टू भरपूर अटैन्‍शन मुद्रा में अरुंधति को सलाम दर सलामू (डेढ़ क्रूर दशक उडनछू न हो गए होते तो 'लाल' विशेषण भी इस्‍तेमाल हो सकता था) हाजिर कर रहे हैं क्‍योंकि साहित्‍य अकादमी पुरस्‍कार उन्‍होंने लौटा दिया है। ऐसा उन्‍होंने क्‍यों किया है - लाल्‍टू समझाते हैं कि अरुंधति ने सरकार की जनविरोधी नीतियों के चलते एक ऐसी संस्‍था से पुरस्‍कार न लेना तय किया है जो ऐसी सरकार से पैसा लेती है। उल्‍लेखनीय है कि साहित्‍य अकादमी यूँ तो स्‍वायत्‍त संस्‍‍था है पर धन वह भारत सरकार के संस्‍कृति मंत्रालय से ही लेती है। तो मैया अरुंधति पैर लागन। और हमें देखो अब तक हम इन ससुरे हिंदी के टुच्‍चे लेखकों के गुण गाते रहे जिन्‍होंने इसी रक्‍त पिपासु अकादमी से पुरस्‍कार लिए और लिए ही नहीं कभी कभी तो छीने-झपटे-जुगाड़े। पर भैया लाल्‍टू इह तो समझाओ तनिक न तो बिटिया से पूछ कर ही बता दो कि इह बूकरवा जब लिए रहिन तब यह विवेक बूकर के पाउण्‍ड्स का बोझ सहन नहीं कर पाया था या फिर ">बूकर लिमिटेड और उनके मालिक ">वॉगर समूह के अरबों पाउण्‍ड्स के टर्न ओवर ने मुँह बंद कर दिया था। खैर छोड़ो माना व‍ह समूह बहुत बड़ा है पर जनविरोधी नहीं ही होगा। अब लाल्‍टू भैया कह रहे हैं तो मान लेते हैं- लाल सलाम


दूसरा उद्वेलन रहा ">रिवर की कविता स्‍टैटकाउंटर सॉनेट जो ब्‍लॉग पर स्‍टैटकाउंटर होने के अनुभव को लिपीबद्ध करती है। निजता अंग्रेजी(दा) चिंतन के लिए सदैव अहम रही है, मैं भी जी मेल व गूगल अर्थ के प्रभाव पर अपने लिखे मैं अपनी बात कह चुका हूँ पर अनुभव के स्‍तर वह ग्‍लानि अनकही ही रह गई है जिससे मैं तब तब गुजरा हूँ जब मैने अचानक पाया है कि दरअसल मेरा व्‍यवहार दूसरे की निजता में हस्‍तक्षेप था या सीधे सीधे जासूसी था। मैं घोषित करता हूँ कि मेरे ब्‍लॉग पर स्‍टैटकाउंटर (या कोई अन्‍य काउंटर) नही है या कहूँ कि इस पोस्‍ट के प्रकाशन तक नहीं थे।

Saturday, January 14, 2006

धूम्रशिखा के रत्‍न


jewel in the smoke
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इन गणितिय रत्‍नों से पाला पड़ा तो आपके लिए भी हाजिर हैं। बिल्‍कुल मुफ्त होम डिलीवरी।

Wednesday, January 11, 2006

वे इसे फीनिक्‍स कहते हैं


वे इसे फीनिक्‍स कहते हैं
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फ्रैक्‍टल एक्‍सप्‍लोरर में इस समीकरण का नाम फीनिक्‍स था। थोड़ी कारीगरी मैनें एक अन्‍य फ्रैक्‍टल को इसकी पृष्‍ठभूमि बनाकर करने की कोशिश की है।

दरका दर्पण धूम्र संसार


darka darpan
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